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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🌷
भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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(#श्रीदादूवाणी ~ विचार का अंग १४/१७)
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*दादू कोटि अचारिन एक विचारी, तऊ न सरभर होइ ।*
*आचारी सब जग भर्या, विचारी विरला कोइ ॥१४॥*
इस जगत में ज्ञान के बिना केवल बाह्य आचार को दिखाने वाले व्यक्ति बहुत हैं, वे सब मिलकर भी आत्मज्ञानी की बराबरी नहीं कर सकते इसलिये सदा आत्मा का ही विचार करें, उसकी ही उपासना करें, और जीवनभर उसी को जानने का यत्न करें, दूसरों का नहीं ।
योगवासिष्ठ में- “वैराग्य और अभ्यास के द्वारा विवेक प्राप्त करके संसाररूपी घोर नदी, जो आपत्तिस्वरूप है, को पार कर जाओ ।” “विवेकी पुरुष को, जो सब कुछ जानता है, विष की तरह मोह से मूर्छित करने वाली इस संसाररूपी माया में नहीं सोना चाहिये । क्योंकि यह मिथ्या है । अर्थात् ठगने वाली है । जो संसार को प्राप्त करके फिर उसकी अवहेलना करता है, वह तृण से बने बिस्तार पर जलते हुए घर में सोता है । अर्थात् संसारी माया उसको जलाकर नष्ट कर देती है ।” इसलिये इस संसार में विचारवान् ज्ञानीपुरुष दुर्लभ है ।
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*दादू घट में सुख आनन्द है, तब सब ठाहर होइ ।*
*घट में सुख आनन्द बिन, सुखी न देख्या कोइ ॥१५॥*
जिसके अन्तःकरण में ब्रह्मानन्द विराजता है । उसको सर्वत्र सुख ही सुख है । जैसे अपने घर में सुख साधन वाले व्यक्ति को अपने घर की तरह सभी जगह सुख ही है, क्योंकि वह सुख के साधनों से युक्त है ।
वासिष्ठ में कहा है- “जिसने संपूर्ण इच्छा या चेष्टाओं को त्याग दिया तथा जिसका मन ब्रह्माकार हो गया, वह शान्त है । उसको सब जगह पर सुख ही सुख है । जैसे चन्द्रलोक(स्वर्ग) में गये हुए प्राणी को वहाँ पर सुख ही सुख है ।”
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*॥ विरक्तता ॥*
*काया लोक अनन्त सब, घट में भारी भीर ।*
*जहाँ जाइ तहाँ संग सब, दरिया पैली तीर ॥१६॥*
*काया माया ह्वै रही, जोधा बहु बलवंत ।*
*दादू दुस्तर क्यों तिरै, काया लोक अनंत ॥१७॥*
प्राणियों के अनन्त शरीर हैं, जिनमें सभी का शरीराध्यास हो रहा है जो मुक्तिमार्ग में पहला प्रतिबन्धक माना गया है । इस शरीर में बहुत से बलवान् काम-क्रोध आदि शत्रु हैं, जो लड़ने में बड़े योद्धा हैं, उनको जीते बिना कोई भी मानव मुक्ति प्राप्त करने में समर्थ नहीं हो सकता । यह जीव जहां भी जाता है, वहीँ पर ये कामक्रोधादि शत्रु साथ ही रहते हैं । अर्थात् इस जीव को क्षणभर भी नहीं छोड़ते । यह शरीर भी एक इन्द्रजाल है, जिसमें अज्ञानी लोग पड़कर मोह से बंध जाते हैं । अतः इन शरीरों में आसक्ति को त्याग कर ही मनुष्य मुक्त हो सकता है अन्यथा नहीं ।
वासिष्ठ में- यह संसार अपार समुद्र की तरह दुस्तर है । इसके मध्य में पड़ा हुआ जीव अनासक्तिरूप युक्ति को प्राप्त कर के उत्कृष्ट ज्ञानबल से अभिमानरूपी ज्वर से रहित होकर निरतिशय आत्मा के आनन्द से नित्य लुप्त होता हुआ शोक और दीनता को त्याग देता है ।
(क्रमशः)
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