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🦚 #श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका 🦚
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भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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(#श्रीदादूवाणी ~ समर्थता का अंग २१ - २१/२५)
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*॥ ईश्वर समर्थाई ॥*
*दादू दादू कहत हैं, आपै सब घट मांहि ।*
*अपनी रुचि आपै कहैं, दादू तैं कुछ नांहि ॥२१॥*
किसी समय करोली राज्य में भ्रमण करते हुए श्रीदादूजी महाराज पधार गये । वहां पर बालकों के साथ मिलकर रामराम कीर्तन करवा रहे थे । वहां पर अकस्मात् उस कीर्तन में सभी बालक राम नाम को छोड़कर ईश्वर की प्रेरणा से दादू शब्द अपने आप ही उच्चारित होने लगा । श्री दादूजी के मना करने पर भी बालक नहीं माने तब श्री दादूजी ने जान लिया कि यह ईश्वर की प्रेरणा है । इसमें मेरा कुछ भी वश नहीं चल सकता है । उस समय भक्त और भगवान् की प्रेरणा से दादूराम दादूराम जपने लगे । तभी से “दादू राम” यह एक मंत्र के रूप में जपा जाने लगा । इसी भाव को अगली साखी में भी कह रहे हैं कि-
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*दादू हम तैं हुआ न होइगा, ना हम करणे जोग ।*
*ज्यों हरि भावै त्यों करै, दादू कहैं सब लोग ॥२२॥*
इस दादू रामनाम को जो बालक जप रहे हैं, इसमें मेरी इच्छा नहीं है कि ये बालक मेरे नाम को रटे । इन बालकों को मैं मना भी नहीं कर सकता क्योंकि यह तो सब ईश्वर की इच्छा से हो रहा है । अतः हे प्रभो ! जैसी आपकी इच्छा है वैसा ही करें । इसमें मेरा कोई वश नहीं है तभी से सभी लोग दादूराम इस मंत्र को जपने लग गये ।
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*॥ पतिव्रत निहकाम ॥*
*दादू दूजा क्यों कहै, सिर पर साहिब एक ।*
*सो हम कौं क्यों बीसरै, जे जुग जाहिं अनेक ॥२३॥*
मेरा तो स्वामी भगवान् राम ही हैं । अतः मैं तो सदा उसी का चिन्तन करता हूँ न कि किसी देवतान्तर का । अनन्त युगों के व्यतीत होने पर भी भगवान् राम अपने भक्तों को नहीं भूल सकते हैं । उनको जो जिस भावना से भजता है उस को वैसा ही फल देकर अनुग्रहित करते हैं । जिसका नाम विश्वम्भर है, क्या वे अपने भक्तों को भूल सकते हैं ? नहीं ।
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*॥ समर्थ साक्षीभूत ॥*
*आप अकेला सब करै, औरों के सिर देइ ।*
*दादू शोभा दास को, अपना नाम न लेइ ॥२४॥*
*आप अकेला सब करै, घट में लहरि उठाइ ।*
*दादू सिर दे जीव के, यों न्यारा ह्वै जाइ ॥२५॥*
जीवों के कर्मानुसार भगवान् स्वयं ही सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, पालन, संहार आदि कार्य करते हैं । किन्तु कर्ता नहीं बनते । क्योंकि वह तो साक्षी हैं । भक्त की शोभा बढ़ाने के लिये शुभ कर्म का निमित भक्त को बनाकर उसकी शोभा बढ़ाते हैं, और अशुभ कर्म का निमित्त अभक्त को बनाकर उसको अपयश का पात्र बना देते हैं । अतः जीव ही कर्ता भोक्ता बनकर सुख दुःख का भोक्ता तथा यश अपयश का पात्र बनता है ।
(क्रमशः)
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