शनिवार, 31 अक्टूबर 2020

(“पंचमोल्लास” ३७/३९)

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स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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(“पंचमोल्लास” ३७/३९)
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*गुणां अतीत इंद्रीजती, निस्प्रेही निज दास ।* 
*तन मन आत्म आनंदमय, रांम तिनों के पास ॥३७॥* 
संत, रजतमादि गुणों से एवं रूप रस गंधादि इन्द्रिय गुणों से अप्रभावित जीतने वाले, कर्मेन्द्रियों को जीतने वाले निस्पृह रूप से आत्मा के दास होते हैं । उनके तन, मन और आत्म ब्रह्मरूप होने से आनंदमय होते हैं और निरंजन सदा उनके हृदय में बसते हैं ॥३७॥ 
*ज्ञान इन्द्रियों को* 
*ऊंच नीच नहीं मित्र रिपु, सुख दु:ख नांही कांम ।* 
*प्रीतिवंत सुमरण करें, निश्‍चै रांम हि राम ॥३८॥* 
उनके लिये कोई भी प्राणि ऊंचा व नीचा नहीं है एवं न कोई मित्र व शत्रु है । हरि में तल्लीन होकर उनका स्मरण करते हैं वे रात दिन निश्‍चय करके राम ही राम का स्मरण करते हैं ॥३८॥ 
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*संतों को कल्प वृक्ष माना है*
*कल्पवृक्ष सम संत हैं, तिहूं ताप हरि लेई ।* 
*जोई कामनां चिंतवें, कृपा करै सब देई ॥३९॥* 
संत कल्पवृक्ष के समान होते हैं जो सब कामना की पूर्ति करते हैं एवं तन मन के आध्यात्मिक, आधिभौतिक आधिदैविक संतापों को नष्ट कर देते हैं । जो कामना करता है कृपा करके उसको पूर्ण करते हैं ॥३९॥ 
(क्रमशः)

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