🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 卐 सत्यराम सा 卐 🙏🌷
🌷 #श्रीरामकृष्ण०वचनामृत 🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*दादू विरह जगावे दर्द को, दर्द जगावे जीव ।*
*जीव जगावे सुरति को, पंच पुकारैं पीव ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
================
साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
.
इसी प्रकार भाव के आवेश में देह के बीच षट्चक्र और उसमें माँ को देख रहे हैं । इसलिए फिर भावविभोर होकर गाना गा रहे हैं -
(भावार्थ)- “हे माँ हरमोहिनी, तूने संसार को भुलावे में डाल रखा है । मूलाधार महाकमल में तू विणावादनकरती हुई चित्तविनोदन करती है । महामन्त्र का अवलम्बन कर तू शरीररूपी यन्त्र के सुषुम्नादि तीन तारों में तीन गुणों के अनुसार तीन ग्रामों में संचरण करती है । मूलाधारचक्र में तू भैरव राग के रूप में अवस्थित है; स्वाधिष्ठानचक्र के षड्दल कमल में तू श्री राग तथा मणिपूरचक्र में मल्हार राग है । तू वसन्त राग के रूप में हृदयस्थ अनाहतचक्र में प्रकाशित होती है । तू विशुद्धचक्र में हिण्डोल तथा आज्ञाचक्र में कर्णाटक राग है । तान-मान-लय-सुर के सहित तू मन्द्र-मध्य-तार इन तीन सप्तकों का भेदन करती है । हे महामाया, तूने मोहपाश के द्वारा सब को अनायास बाँध लिया है । तत्त्वाकाश में तू मानो स्थिर सौदामिनी की तरह विराजमान हैं । ‘नन्दकुमार’ कहता है कि तेरे तत्त्व का निश्चय नहीं किया जा सकता । तीन गुणों के द्वारा तूने जीव की दृष्टि को आच्छादित कर रखा है ।”
.
(भावार्थ)- “माँ के गूढ़ तत्त्वों को सोचते सोचते प्राणों पर आ बीती । जिसके नाम से कालभय नष्ट होता है, जिसके चरणों के नीचे महाकाल है, उसका काला रूप क्यों हुआ ? काले रूप अनेक हैं, पर यह बड़ा आश्चर्यजनक काला रूप है, जिसे हृदय के बीच में रखने पर हृदयरूपी पद्म आलोकित हो जाता है । रूप में काली है, नाम में काली है, काले से भी अधिक काली है । जिसने इस रूप को देखा है, वह मोहित हो गया है, उसे दूसरा रूप अच्छा नहीं लगता । ‘प्रसाद’ आश्चर्य के साथ कहता है कि ऐसी लड़की कहाँ थी, जिसे बिना देखे, केवल कान से जिसका नाम सुनकर ही मन जाकर उससे लिप्त हो गया !”
.
अभया की शरण में जाने से सभी भय दूर हो जाते हैं, सम्भव है इसीलिए वे भक्तों को अभयदान दे रहे हैं और गाना गा रहे हैं-
(भावार्थ) – “मैंने अभय पद में प्राणों को सौंप दिया है” इत्यादि ।
श्री सारदाबाबू पुत्रशोक से अत्यन्त व्यथित हैं । इसलिए उनके मित्र अधर उन्हें श्रीरामकृष्ण के पास लाये हैं । वे गौरांग के भक्त हैं । उन्हें देखकर श्रीरामकृष्ण में श्रीगौरांग का उद्दीपन हुआ है ।
.
श्रीरामकृष्ण गा रहे हैं-
(भावार्थ) – “मेरा अंग क्यों गौर हुआ ? इत्यादि ।
अब श्रीगौरांग के भाव में आविष्ट हो गाना गा रहे हैं । कह रहे हैं, सारदाबाबू यह गाना बहुत चाहते हैं ।
(भावार्थ) – “भावनिधि गौरांग का भाव होगा नहीं तो क्या ? भाव में हँसते हैं, रोते हैं, नाचते हैं, गाते हैं । वन देखकर वृन्दावन समझते हैं । गंगा देख उसे यमुना मान लेते हैं । गौरांग सिसक-सिसककर रो रहे हैं । यद्यपि वे बाहर ‘गोर’ हैं तथापि भीतर वे ‘कृष्ण’ हैं ।
.
(भावार्थ) - “माँ ! पड़ोसी लोग हल्ला मचाते हैं । मुझे गौरकलंकिनी कहते हैं ? क्या यह कहने की बात है ? कहाँ कहूँगी ? ओ प्यारी सखि, लज्जा से मरी जाती हूँ । एक दिन श्रीवास के मकान में कीर्तन की धूम मची हुई थी; गौररुपी चन्द्रमा श्रीवास के आँगन पर लोटपोट हो रहा था । मैं एक कोने में खड़ी थी । एक ओर छिपी हुई थी । मैं बेहोश हो गयी । श्रीवास की धर्मपत्नी मुझे होश में लायी । एक दिन गौर नगरकीर्तन कर रहे थे; चाण्डाल, यवन आदि भी गौर के साथ थे । वे ‘हरि बोल’ ‘हरि बोल’ कहते हुए नदिया के बाजारों में से चले जा रहे थे । मैंने उनके साथ जाकर दो रक्तिम चरणों के दर्शन किए थे । एक दिन गंगातट पर घाट पर गौरांग प्रभु खड़े थे । मानो चन्द्र और दूरी दोनों ही गौर के अंग में प्रकट हुए थे । गौर के रूप को देखकर शाक्त और शैव भूल गए । एकाएक मेरा घड़ा गिर पड़ा ! दुष्ट ननदिया ने देख लिया था ।”
बलराम के पिता वैष्णव हैं; सम्भव है इसीलिए अब श्रीरामकृष्ण गोपियों के दिव्य प्रेम का गाना गा रहे हैं ।
.
(भावार्थ) – “सखि, श्याम को पा न सकी, तो फिर किस सुख से घर पर रहूँ ? यदि श्याम मेरे सिर के केश होते तो हे सखि, मैं उसमें बकुल फूल पिरोकर यत्न के साथ वेणी बाँध लेती । श्याम यदि मेरे हाथ के कंगन होते, तो सदा बाँहों में लगे रहते । सखि, मैं कंगन हिलाकर, बाँह हिलाकर चली जाती । हे सखि ! मैं श्यामरुपी कंगन को हाथ में पहनकर सड़कों पर से चली जाती । जिस समय श्याम अपनी बाँसुरी बजाता है, तो मैं यमुना में जल लेने आती हूँ । मैं भटकी हुई हरिणी की तरह इधर-उधर ताकती रहती हूँ ।”
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें