शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2020

*८. लै कौ अंग ~ ३३/३६*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*८. लै कौ अंग ~ ३३/३६* 
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डूंगर तलै३ चींटी दबी, कहु क्यों निकसै रांम ।
कहि जगजीवन क्रिपा हरी, सहसर पंथ सब ठांम ॥३३॥
(३. डूंगर तलै=पहाड़ के नीचे)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि संसार की समस्याएं पर्वत जैसी हैं और जीव चींटी समान वह उसमें से कैसे निकल सकता है । यदि प्रभु कृपा करें तो फिर हजार मार्ग सब जगह बन जाते हैं ।
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रांम निबेरौ४ कीजिये, मोहि मिलन की चाह ।
कहि जगजीवन गालिये, असत तुचा अछिआह ॥३४॥
(४. निबेरौ=पूर्ण करो)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि, हे प्रभु आपसे मिलने की उत्कंठा अति प्रबल है आप ही इस मनोरथ को पूर्ण करें । चाहे मेरी अस्थि त्वचा भले ही ना रहे पर आपसे आत्म साक्षात्कार अवश्य हो ।
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अझूंठ कोडि तन एक से, रसनां हरि हरि रांम ।
कहि जगजीवन लीन जन५, अलख पिछांणै नांम ॥३५॥
{५. जन=भक्त(=उपासक)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सत्यवादी जन उत्साह से प्रभु स्मरण करते हैं । जो राममय जीव हैं वै स्वतः पहचान जाते हैं । कि और कौन जन उन जैसा है ।
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कहि जगजीवन एक मंहि, अनंत देह करि जांण ।
अनंत बदन रसनां अनंत, अनंत ठांम प्रमांण ॥३६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि, एक प्रभु स्मरण में ही सब समाया है । जिसे ही अनंत देह, मुख, व जिह्वा कर अनेक स्थानों पर पाया जा सकता है ।
(क्रमशः)

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