शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2020

*८. लै कौ अंग ~ ९/१२*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*८. लै कौ अंग ~ ९/१२*
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असत तुचा ए लीन करि, हरि रस मांही गाल ।
कहि जगजीवन रांम रटि, ब्रह्म अगनि प्रज्वाल ॥९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि संसारिक वैभव त्याग कर हरिनाम में ही शरीर की सारी शक्ति लगायें संत कहते हैं कि राम रटे व ब्रह्म तप को शुरु करें ।
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असत तुचा अंतर नहीं, अबिगत परस्यां एह ।
कहि जगजीवन तेज मंहि, तेज सरीखी देह ॥१०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अस्थि त्वचा में फर्क नहीं है अगर परमात्मा उन्हें स्वीकार कर लें संत कहते हैं कि तेजोमय स्वरूप में तेजस्वी देह का समाहित होना ही उसका सार्थक होना है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, असत तुचा रस सींचि ।
आप समां है राखिये, अगम अगोचर खींचि ॥११॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु ये अस्थि त्वचा सब आपके प्रदत्त रस से पोषित है । आप इसमें समाहित है और आपने ही ने इसे खींच कर थाम रखा है ।
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कहि जगजीवन लीन मन, लीन करै तन ताइ ।
सब अंग देखै पिछांणै, हरि भजि हरि मंहि आइ ॥१२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन को प्रभु में लीन करें और लीन भी तप द्वारा करें । और ऐसा करें कि सब देख कर ही जान जायें कि इस जीवात्मा ने भजन किया है ।
(क्रमशः)

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