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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मन का अंग १०/११०.११*
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*वर्तन एकै भाँति सब, दादू संत असंत ।*
*भिन्न भाव अन्तर घणा, मनसा तहें गच्छन्त ॥११०॥*
दृष्टांत -
गुरु दादू की कथा में, आवत इक रजपूत ।
हुक्का की साधुन कहा, स्वामी कहा जू सूत ॥२६॥
एक राजपूत दादूजी की कथा सुनने आता था । संतों ने कहा - हुक्का छोड़ दो । फिर दादूजी ने भी कहा - संत ठीक ही कहते हैं । हुक्का नहीं पीना चाहिये ।
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*यहु मन मारै मोमिनौं, यह मन मारै मीर ।*
*यहु मन मारै साधकाँ, यहु मन मारै पीर ॥१११॥*
दृष्टांत -
बायजीद शिष वचन का, रहस्य लहा नहिं कोय ।
मन का मान उतार तू, अपनी गति कहि सोय ॥२७॥
एशिया के वस्ताम देश के निवासी बायजीद वस्तामी को उनके एक शिष्य ने कहा - मुझे उच्च कोटि का उपदेश दीजिये । तब बायजीद ने उसकी परीक्षा लेने के लिये उसे कहा - तुम गले में अखरोटों की झोली डालकर बाजार में जाओ और उच्च स्वर से बोलो - मेरे शिर पर जो जूता मारे गा उसे मैं अखरोट दूंगा । तब उसने अपने मनगति(स्थिति) गुरुजी को कहकर सुनाई - यह तो मेरे से नहीं होगा । तब बायजीद ने कहा - पहले अपने मन के मान को हटाओ तब ही उच्च कोटि के उपदेश के अधिकारी बनोंगे । यही उक्त १११ की साखी में कहा है कि मन सबको मारता है ।
(क्रमशः)
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