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*दादू अमृत छाड़ कर, विषय हलाहल खाइ ।*
*जीव बिसाहै काल को, मूढा मर मर जाइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*अपलक्षण अपराध का अंग १२८*
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बईयर१ बाती नारियल, बनसी२ जिन जिन लीन ।
जन रज्जब तेते३ मुये, नर मूंसा बग मीन ॥९॥
जिन जिन नरों ने आसक्ति पूर्वक नारी१ को ग्रहण किया, जिन जिन चूहों ने जलते हुये दीपक की बाती उठाई, जिन जिन बगलों ने नारियल को चूंसने के लिये उसमें चोंच डाली और जिन जिन मीनों ने मच्छी पकड़ने के काँटे२ को पकड़ कर निगला, वे वे३ सब मृत्यु को ही प्राप्त हुये, यही कुसंग का फल है ।
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ज्यों जीव काटे जीभ को, स्वारथ मुख ही चलाय ।
त्यों रज्जब हममें भई, का शिर देहिं बलाय१ ॥१०॥
जैसे जीव अपने मुख को हिलाकर अपने दाँतों से जिह्वा को काट डाले तब किसको दोष दे, यह तो उसी का अपराध है । वैसे ही हम सब मानवों में हुई है, सब स्वार्थ में वृति लगाकर जन्मादि क्लेश भोग रहे हैं, इसका दोष१ किसके शिर लगाये, यह तो हमारा ही अपराध है ।
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जाण बूझ जे जहर को, यथा जीव जो खाय ।
रज्जब कहिये कौन सौं, अपलक्षण१ मरि जाय ॥११॥
जैसे जो जीव यदि जान बूझकर विष को खा जाय तो मरे ही गा, उसके लिये किसको कहा जाय कि क्यों मार दिया । वैसे ही सब प्राणी जान बूझकर विषय विष खाकर मर रहे हैं । यह उनका अपना ही अपराध१ है, किसी अन्य का नहीं ।
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प्राणी परलै१ मन मुखी, स्वाद लागि जिव२ जाय ।
रज्जब दीन दयालु को, उलटा३ दोष न लाय ॥१२॥
इन्द्रियों के विषय के स्वाद में लग कर मन२ विषयों में ही जाता है और मन के संकल्पों को मुख्यता देने वाले प्राणी विनाश१ को ही प्राप्त होते है, अत: विनाश का दोष दीन दयालु प्रभु को लगाना विपरीत३ है, नहीं लगाना चाहिये ।
(क्रमशः)
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