शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2020

= *कुसंग सुसंग का अंग १२७(२१/२४)* =

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*दादू पाका मन डोलै नहीं, निश्चल रहै समाइ ।*
*काचा मन दह दिशि फिरै, चंचल चहुँ दिशि जाइ ॥*
*सीप सुधा रस ले रहै, पीवै न खारा नीर ।*
*मांहैं मोती नीपजै, दादू बंद शरीर ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*कुसंग सुसंग का अंग १२७*
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आतम अंध्रिप१ खोडि२ खित३, तहाँ चढै बल वारि ।
तर४ धरि५ मिल सम६ जोर७ जल, रज्जब समझ विचारी ॥२१॥
पृथ्वी३ में स्थित वृक्ष१ पर जल चढ जाय तो वृक्ष की हानि होती है और वही जल नीचे४ पृथ्वी५ से मिलकर जड़ द्वारा प्राप्त होता है तब वृक्ष के सभी भागों को समान६ बल७ देता है और अन्यों को भी छाया आदि का लाभ होता है । वैसे ही समझो यदि शरीर२ में स्थित जीवात्मा पर बल का धमण्ड चढ जाता है तो उसकी हानि ही होती है और वह बल विचार द्वारा प्राप्त होता है तो मन इन्द्रियादि सभी शरीर को तथा अन्यों को भी समान भाव से सात्विक बल प्रदान कराता है । अत: एक ही वस्तु एक पद्धति से कुसंग रूप और एक से सुसंग रूप हो जाती है ।
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रज्जब काचे काठ को, देखो कीड़े खांहि ।
पाके में पैठे१ नहीं, वक्त्र२ सु वेधै३ नांहिं ॥२२॥
देखो, कच्चे काष्ठ को ही कीड़े खाते हैं, पक्के में प्रवेश१ नहीं कर पाते । वैसे ही कच्चे विचारों के मानव पर ही कुसंग का प्रभाव पड़ता है पक्के विचारों के मानव के हृदय को मानव के हृदय को कुमानव के मुख२ से वचन विद्ध३ नहीं कर सकते ।
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भला न आदम१ सारिखा२, बुरा न ऐसा और ।
रज्जब देखा गुरु दृष्टि, सुकृत कुकृत ठौर ॥२३॥
सुकर्म और कुकर्म रूप दोनों स्थानों मे ही हमने गुरु द्वारा प्राप्त विचार दृष्टि से देखा है तो ज्ञान हुआ कि मनुष्य१ के समान२ कोई भला भी नहीं है और बुरा भी नहीं है ।
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रज्जब अज्जब आदमी, जो हरि सेती होय ।
परमेश्वर सौ पीठ दे, तो या सम बुरा न कोय ॥२४॥
यदि मनुष्य का भजन द्वारा हरि से सम्बन्ध होता है तब तो मनुष्य बड़ा ही अदभुत है और परमेश्वर को पीठ देता है अर्थात भजन नहीं करता तब इसके समान कोई बुरा भी नहीं है ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित कुसंग सुसंग का अंग १२७ समाप्तः ॥सा. ४०६२॥
(क्रमशः)

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