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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*८. लै कौ अंग ~ २१/२४*
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रांम कहै तहां रांमजी, नहीं पसारौ आंन६ ।
कहि जगजीवन जुगल जस, हरि विज्ञांन क्रित अज्ञांन ॥२१॥
(६. पसारौ आंन-अन्य सांसारिक प्रपंचों का विस्तार)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जहां राम स्मरण होता है वहां राम स्वंय होते हैं । अन्य कोइ प्रपंच नहीं होता है । संत कहते हैं कि प्रभु व माया दोनों में यह ही अंतर है कि प्रभु विज्ञान की भांति सार्थक व संसार अज्ञान की भांति है ।
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रांम करावै हरि भगति, रांम जगावै जोति ।
कहि जगजीवन रांम रिदा मंहि, दूरी करत हरि छोति७ ॥२२॥
{७. छोति-छूत(=अस्पृश्यता, दैहिक अशुद्धि)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम ही हरि भक्ति कारक हैं राम ही ज्ञान की ज्योति जगाते हैं । संत कहते हैं कि राम हृदय में हो तो वे हमारी अशुचिता को दूर कर हमें पवित्र करते हैं ।
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हरि हरि वांणी रांमजी, हरि हरि वांणी नांद ।
कहि जगजीवन हरि हरि वांणी, सकल स्वाद सिर स्वाद१ ॥२३॥
(१. सिर स्वाद-उत्तम रस)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हरि स्मरण ही प्रभु है प्रभु स्मरण ही अनाहद ध्वनि है । संत कहते हैं कि परमात्मा की वाणी का ही आनंद सबसे श्रेष्ठ आनंद है ।
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लिव२ लागै तो बसतु३ लहै, मस्त४ रहै ता मांहि ।
जगजीवन हरि मांहि मिलि, हरिजन खिसकै नांहि ॥२४॥
(२. लिव-लय) {३. बसतु-वस्तु(=परम तत्त्व)} (४. मस्त-मग्न)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परमात्मा से तो लय ही सार्थक है और उस लय में जीव मस्त रहता है । संत कहते हैं कि परमात्मा को मिलकर फिर प्रभु के बंदे कहीं अन्यत्र नहीं जाते ।
(क्रमशः)
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