सोमवार, 5 अक्टूबर 2020

*७. हैरान कौ अंग ~ ७७/८०*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*७. हैरान कौ अंग ~ ७७/८०*
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क्यों ससि सूरज क्यूँ गगन, क्यूं घर अधर अगाध ।
कहि जगजीवन रांमजी, कोई गति समझै साध ॥७७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि चंन्द्र क्यों है, सूर्य क्यों है, आकाश क्यों है, कैसै उन परमात्मा का घर आधार विहीन है, यह गति कोइ साधु जन ही जान पाते हैं ।
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एक आध कोई रांम रटै, अंग मंहि अंग समाइ ।
कहि जगजीवन क्रिपा हरि मसत१ मगन मिलि ताहि ॥७८॥
{१. मसत-मस्त(प्रसन्न)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि एकाध ही कोइ ऐसा है जो भजन करे और प्रभु में समाहित रहे, संत कहते हैं कि जब प्रभु कृपा करते हैं तो जीव मस्त व परमात्मा में मगन हो उनमें ही एकाकार रहता है ।
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झिलमिल नूर प्रकास कहै, तेज पुंज निज तंत ।
कहि जगजीवन सुंनि मंहि, करता है क्यूं कंत ॥७९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि झिलमिलाता हुआ परमात्मा का सौन्दर्य स्वयं के तेज से प्रभासित है । संत कहते कि इतने सौन्दर्यवान परमात्मा का वास्तविक स्वरूप शून्य क्यों है ।
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तेज पुंज निरसंधि२ है, क्यों ही लख्या न जाइ ।
कहि जगजीवन भया नहीं, नांम धरै कोई ताहि ॥८०॥
{२. निरसंधि - निःसन्धि(संयोग रहित)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि तेज पुंज संयोग रहित है वे दिखते क्यों नहीं ? संत कहते हैं कि जो उत्पन्न ही न हुआ हो कोइ उसका स्वरूप निरुपण कर नाम कैसे दे सकता है ?
(क्रमशः)

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