रविवार, 11 अक्टूबर 2020

*८. लै कौ अंग ~ १७/२०*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*८. लै कौ अंग ~ १७/२०*
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कहि जगजीवन बिलै तन, विलै प्रांण मन नाद ।
अैसे हरि भजि नांम लहैं, ते जन पावैं स्वाद ॥१७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हरिभजन का आनंद तभी आता है जब हम उसमें तन, मन, प्राण, नाद, स्वर सब उसी में विलीन कर दें ।
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लाख३ शब्द ल्यौ बाहिरा, कोई कहौ किंहिं भांति ।
कहि जगजीवन रांम विन, सक्ति प्रव्रिती राति३ ॥१८॥
{३-३. ‘रांम’ शब्द के विना अन्य लाखों सांसारिक शब्द तुम्हारा अविद्यामय अन्धकार(सांसारिक रति) ही बढ़ायेंगे ॥१८॥}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम नाम के अलावा चाहे अन्य लाखों शब्द ही क्यों न उच्चारण कर ले वे हमारे अज्ञान की ही वृद्धि करेंगें । रामनाम ही उद्धारक है ।
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दिन४ दिन कर प्रवृति वृद्धि, निसि सुपिनों क्रित कांम ।
कहि जगजीवन लाइ लिव, रसनां रटै न रांम४ ॥१९॥
(४-४. प्रतिदिन ऐसे सांसारिक शब्दों की वृद्धि करने पर, स्वप्न में कृत कार्य के समान, तुम्हें सफलता नहीं मिलेगी जब तक रामभजन नहीं करोगे ॥१९॥)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अपने शब्द कोष में शब्दों की वृद्धि मात्र करने से भक्ति नहीं होती यह तो उस भांति है जैसे जैसे हम स्वप्न में कोइ कार्य करें और उसका क्रियान्वयन यथार्थ में चाहें तो नहीं होगा । भक्ति तो यथार्थ में स्मरण से ही होगी ।
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इंद्री५ साधी साधि मन, पवन सध्या ल्यौ लाइ ।
कहि जगजीवन लिव मंहि, रांम मिटावै आइ५ ॥२०॥
(५-५. मन, इन्द्रिय, एवं श्वास पर संयम करते हुए, लय की साधना करते हुए, रामभजन से अंत में लय का व्यामोह भी मिट जायगा ॥२०॥)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन इन्द्रिय व श्वास पर संयम करते हुए लय की साधना करने से व रामभजन करने से लय का व्यामोह, कि हम प्रभु में लीन हैं, भी मिट जायेगा । तब सिर्फ भजन द्वारा उद्धार है ऐसा भासित होने लगेगा ।

(क्रमशः) 

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