शनिवार, 10 अक्टूबर 2020

*द्वादश भक्त कथा सु पुरानन*


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*दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो सब परिहर प्राण ।*
*मनसा वाचा कर्मणा, जे तूं चतुर सुजाण ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ चितावणी का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*शिवजी की पद्य टीका*
*इन्दव-*
*द्वादश भक्त कथा सु पुरानन,*
*है सुख देन विविद्धिन गाये ।*
*शंकर बात घने नहिं जानत,*
*सो सुन के उर भाव समाये ॥*
*सीत वियोग फिरै वन राम,*
*सती शिव को इमि बैन सुनाये ।*
*ईश्वर यह करौं इन पारिख,*
*पालत१ अंग वसे हि बनाये ॥२२॥*
द्वादश भक्तों की सुखदाता सुन्दर कथायें पुराणों में हैं पुराण वक्ताओं ने उनके चरित्र विविध प्रकार से गाये हैं किन्तु शंकरजी की यह कथा बहुत लोक नहीं जानते, यह कथा ऐसी है कि इसे सुन कर हृदय भगवत् भाव में समा जाता है । 
सीताजी के वियोग से व्यथित रामजी वन में विचर रहे थे तब उन्हें देखकर सती जी ने शिवजी को इस प्रकार वचन सुनाया कि आप इनको ईश्वर कहते हैं तो ये नारी वियोग में व्यथित क्यों हो रहे हैं? अतः मैं इनकी परीक्षा करती हूँ कि ये ईश्वर हैं या साधारण राजकुमार हैं । तब शंकरजी ने मना१ करते हुये कहा-सावधान ! कोई अविवेक का कार्य नहीं करना । फिर भी सती जी ने परीक्षा करने के लिये अपने सभी अंग सीताजी के समान ही बना लिये ।
(क्रमशः)

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