शनिवार, 31 अक्टूबर 2020

*८. लै कौ अंग ~ ४१/४४*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*८. लै कौ अंग ~ ४१/४४* 
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लीन रहै तो बस्तु रहै, घट मंहि पावै घाट ।
जगजीवन हरि तजि भरमै, ह्वै जाइ बारह बाट९ ॥४१॥
{९. बारह बाट-छिन्न भिन्न या तितर बितर हो जाना(बाह्यवृत्ति)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यदि मन प्रभु में लीन रहे तभी उसकी सार्थकता है और फिर मन में ही वह प्रभु का स्थान पा सकता है और यदि वह प्रभु को छोड़कर अन्य में ध्यान लगाये तो वह छिन्न भिन्न होता है ।
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कहि जगजीवन कीनियां, जिस घट थंभै काम ।
हरदम पाक हजूर१ रहै, लहै सु अल्लह रांम ॥४२॥
(१. हरदम पाक हजूर=प्रतिक्षण पवित्र सेवा में)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जब प्रभु का रसायन से ही जीव की सब कामनाओं की पूर्ति होती है तो हर समय उन पवित्र प्रभु का दर्शन व राम या अल्लाह का मेल होता है ।
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लीन सबद सांचा सकल, रांम रिदै बेसास ।
पाका काचा मिलि रह्या, सु कहि जगजीवनदास ॥४३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो राम नाम शब्द में लीन रहते हैं और जिनके हृदय में राम नाम का विश्वास है । वे पूर्ण या अपूर्ण सब परमात्मा से मिल जाते हैं ।
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शब्द ब्रह्म सांचा कह्या, काचा कह्या सरीर ।
कहि जगजीवन भेजि पाका, पिया अमीरस नीर ॥४४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस क्षण भंगुर काची काया में ब्रह्म रुपी सच्चा शब्द रहता है, संत कहते हैं कि पक्के फल से जिस प्रकार मीठा रस मिलता है उसी प्रकार परिपक्व सत्य से अमरत्व मिलता है ।
(क्रमशः)

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