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*जहाँ आत्म तहाँ राम है, सकल रह्या भरपूर ।*
*अंतरगति ल्यौ लाइ रहु, दादू सेवक सूर ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*हनुमान् जी की पद्य टीका*
*इन्दव-*
*सागर सार उधार१ किये नग,*
*माल विभीषण भेंट करी है ।*
*सो वह ले करि ईश निशाचर,*
*आय सियावर पाइ धरी है ॥*
*चाहि सभा मन देख हनूं गल,*
*डारि दिई चित चौंकि परी है ।*
*राम बिना मणि फोड़ दिखावत,*
*काटि त्वचा यह नाम हरी है ॥२८॥*
अपने सार रूप निकाले१ हुये नगों की माला बनाकर सागर ने राज्याभिषेक के समय विभीषण के भेंट की थी । वही माला हाथों में लेकर तथा रामजी के पास जाकर विभीषण ने उनके चरणों में रख दी, फिर वह माला रामजी ने सीता को प्रदान की । सीता जी ने उसे हाथों में उठाकर जब अन्य को देना चाहा, तब सभी सभा के लोगों के मन में उसे प्राप्त करने की चाह हुई किन्तु चाह न होने पर भी सीता जी ने हनुमान् जी के गले में वह माला डाल दी । वे राम जी के ध्यान में निमग्न थे ।
अकस्मात् गले में माला पड़ने से मन में चौंक पड़े और उसे गले से निकाल कर एक एक मणि फोड़कर देखने लगे । तब अन्य सभासदों ने पूछा-इन अमूल्य मणियों को फोड़कर इनमें क्या देख रहे हो? हनुमान् जी ने कहा-राम नाम देख रहा हूँ, जिसमें राम नाम नहीं वह वस्तु मेरे काम की नहीं होती इसलिये इनको फेंक रहा हूँ । सभासद- यह अपना शरीर क्यों रखते हो ? इसमें तो राम नाम नहीं है ? हनुमान् जी ने कहा- है । सभासदों ने कहा- कहां है दिखाओ ? तम हनुमान् जी ने अपनी त्वचा को काट कर सबको अपने हृदय में राम नाम दिखा दिया था ।
(क्रमशः)
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