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*मैं अजाण मतिहीण,*
*जम की पाश तैं रहत हूँ डरी ॥*
*सबै दोष दादू के दूर कर, तुम ही रहो हरी ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद. १०२)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
.*ता छिन रीझि दिई बहु दैत्यन,*
*आसन पै पधराय निहारै ।*
*आनन अंबुज चाहि प्रफुल्लत,*
*आप खड़ो कर दंड सहारै ॥*
*होत प्रसन्न न मांहिं डरै अति,*
*धाम रहो मम राइ उचारै ।*
*पार करो सुख सार यही बड़,*
*दे रतनादिक सिन्धु उतारै ॥३०॥*
उसी क्षण उस मानव को लाने वाले राक्षसों पर अति प्रसन्न होकर उन्हें बहुत-सी मन भाई इनाम दी और उस मानव को उत्तम सिंहासन पर बैठाकर तथा राम स्वरूप समझकर पूजन करके दर्शन करने लगा तथा स्वयं विभीषण दंड के सहारे सामने खड़ा होकर उस मानव का प्रसन्न मुख देखने की अभिलाषा करने लगा ।
किन्तु उस मानव का मन राक्षसों से बहुत डर रहा था, इससे मुख प्रसन्न नहीं हो रहा था । राक्षसराज विभीषण ने उससे कहा- आप मेरे धाम में ही निवास करो । उसने कहा- मैं तो महान् तथा सार रूप सुख इसी में समझता हूँ, आप मुझे समुद्र से पार उतार दो । तब बहुत-सी रत्नादि संपत्ति देकर उसे सागर से पार करने का यत्न करने लगे ।
(क्रमशः)
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