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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*८. लै कौ अंग ~ ५७/६०*
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उदियम९ कीजै आत्मा, अंतर गति ल्यौ लाइ ।
जगजीवन पिव परसिये, सो क्रित समझ समाइ ॥५७॥
{९. उदियम=उद्यम(=उद्योग)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे जीव, आत्मा द्वारा उद्यम पूर्वक यह ही कृत्य हो कि वह अतंर में ही परमात्मा से लय लगाये जिससे प्रभु मिले, यह कृत्य जीव भली भांति जान ले ।
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तन मन विलै करि आतमां, महा अनूपम अंग ।
देह निरंतर जाहि रहै, जगजीवन निज संग ॥५८॥
संतजगजीवन जी कहते है कि अपना सर्वस्व, यथा देह, मन, आत्मा परमात्मा के अनुपम अंग को ही समर्पित करें जिससे इस देह की पालना भी इसे भी अपनी जानकर वे प्रभु करेंगे ।
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जगजीवन अंतरिख मन, निराधार रहि जाइ ।
तो सब अंग देखै सुरति सूं, सहजैं सुन्नि समाइ ॥५९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन दूर अंतरिक्ष तक दौड़ता है फिर भी प्रभु का सहारा न होने से वह निराधार होता है । और जब वह प्रभु का ध्यान करता है तो सहज ही शून्य में समाहित होजाता है प्रभु ही का हो कर रहता है ।
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सुरति निरंतर सबद रस, पीवै अम्रित नीर ।
तन मन प्रांण बिलै करै, जगजीवन ते पीर ॥६०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिसका ध्यान प्रभु में लगा हो और जो स्मरण रस पान रुपी अमृत रस पान करता हो वह जीव अपने तन मन को गौण कर भक्ति करता है वह प्रभु का प्रिय है ।
(क्रमशः)
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