गुरुवार, 19 नवंबर 2020

*निष्काम कर्म संन्यासी के लिए वासनात्याग*

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*मन मृगा मारै सदा, ताका मीठा मांस ।*
*दादू खाइबे को हिल्या, तातैं आन उदास ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ मन का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(३)
*श्रीयुत विजयकृष्ण गोस्वामी की निर्जन में साधना* 
श्रीयुत विजय अभी अभी गया से लौटे हैं । वहाँ बहुत दिनों तक निर्जन में रहकर वे साधुओं से मिलते रहे थे । इस समय उन्होंने भगवा धारण कर लिया है । उनकी अवस्था बड़ी ही सुन्दर है; जान पड़ता है, सदा ही अन्तर्मुख रहते हैं । श्रीरामकृष्णदेव के पास सिर झुकाए हुए हैं, जैसे मग्न होकर कुछ सोचते हों ।
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विजय को देखते ही श्रीरामकृष्णदेव ने कहा, “विजय, क्या तुमने घर ढूँढ लिया ? 
“देखो, दो साधु विचरण करते हुए एक शहर में आ पहुँचे । आश्चर्यचकित होकर उनमें से एक शहर, बाजार, दुकानें और इमारतें देख रहा था, इसी समय दूसरे से उसकी भेंट हो गयी । तब दूसरे साधु ने कहा, “तुम दंग होकर शहर देख रहे हो; तुम्हारा डेरा-डण्डा कहा है ? पहले साधु ने कहा, ‘मैं पहले घर की खोज करके, डेरा-डण्डा रख, ताला लगाकर, निश्चिन्त होकर निकला हूँ, अब शहर का रंग-ढंग देख रहा हूँ ।’ इसीलिए तुमसे मैं पूछ रहा हूँ, क्या तुमने घर ढूँढ लिया ? (मास्टर आदि से) देखो, इतने दिनों तक विजय का फौआरा दबा हुआ था, अब खुल गया है ।
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*निष्काम कर्म संन्यासी के लिए वासनात्याग* 
(विजय से) – “देखो, शिवनाथ बड़ी उलझन में है । अखबार में लिखना पड़ता है, और भी बहुत से काम उसे करने पड़ते हैं । विषयकर्म ही से अशान्ति होती है, कितनी चिन्ताएँ आ इकट्ठी होती हैं ।
“श्रीमद्भागवत में है, अवधूत ने चौबीस गुरुओं में चील को भी एक गुरु बनाया था । एक जगह धीवर मछली मार रहे थे, एक चील झपटकर एक मछली ले गयी, परन्तु मछली को देखकर करीब एक हजार कौए उसके पीछे लग गए, और साथ ही काँव-काँव करके बड़ा हल्ला मचाना शुरू कर दिया । 
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मछली को लेकर चील जिस तरफ जाती, तब कौए भी उसी ओर गये । जब वह उत्तर की तरफ गयी, तब वे भी उसी ओर गये । इसी तरह पूर्व और पश्चिन की ओर भी चील चक्कर काटने लगी । अन्त में घबराहट के मारे चक्कर लगते हुए मछली उससे छूट कर जमीन पर गिर पड़ी । तब वे कौए चील को छोड़ मछली की ओर उड़े । चील तब निश्चिन्त होकर एक पेड़ की डाल पर जा बैठी । बैठी हुयी सोचने लगी, ‘कुल बखेड़े की जड़ यही मछली थी; अब वह मेरे पास नहीं है इसीलिए मैं निश्चिन्त हूँ ।’
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“अवधूत ने चील से यह शिक्षा प्राप्त की कि जब तक मछली साथ रहेगी अर्थात् वासना रहेगी, तब तक कर्म भी रहेगा, और कर्म के कारण चिन्ता और अशान्ति भी रहेगी । वासना का त्याग होने से ही कर्मों का क्षय हो जाता है और शान्ति मिलती है ।
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“परन्तु निष्काम कर्म अच्छा है । उससे अशान्ति नहीं होती । पर निष्काम कर्म करना बड़ा कठिन है । मनुष्य सोचता है कि मैं निष्काम कर्म कर रहा हूँ परन्तु कहाँ से कामना निकल पड़ती है, यह समझ में नहीं आता । यदि पहले की साधना अधिक हो तो उसके बल से कोई कोई निष्काम कर्म कर सकते हैं । ईश्वरदर्शन के बाद निष्काम कर्म अनायास ही किए जा सकते हैं । ईश्वरदर्शन के बाद प्रायः कर्म छूट जाते हैं । दो-एक मनुष्य(नारदादि) लोकशिक्षा के लिए कर्म करते हैं ।
(क्रमशः)

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