गुरुवार, 19 नवंबर 2020

जीवित मृतक का अंग २३ - १/३

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भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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(#श्रीदादूवाणी ~ जीवित मृतक का अंग २३ - १/३)
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*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।*
*वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥*
*धरती मत आकाश का, चंद सूर का लेइ ।*
*दादू पानी पवन का, राम नाम कहि देइ ॥२॥*
जीवन्मुक्त पुरुष के लक्षण बतला रहे हैं कि- धरती की तरह क्षमाशील हो, आकाश की तरह निर्लेप, चन्द्र की तरह सौम्य प्रकृति वाला, सूर्य की तरह तेजस्वी, जल की तरह अनासक्त होकर जो हरि को भजता है और देहाध्यास को त्याग देता है, उसकी जीवन्मुक्त दशा हो जाती है । 
अनुभूतिप्रकाश में लिखा है कि- इस देह के तादात्म्याध्यास से ही पहले भ्रान्ति से दुःख का अनुभव होता था । भ्रान्ति के नष्ट हो जाने पर जीवन्मुक्त सदा सुख को ही देखता है । तत्वज्ञान होने पर देहाध्यास की विस्मृति हो जाती है और देहाध्यास के नष्ट होते ही दुःख भी नष्ट हो जाता है । अतः जीवन्मुक्त पुरुष सदा सुखी रहता है । यद्यपि साक्षी को सुख दुःख दोनों भासते हैं और साक्षी से ज्ञानी का तादात्म्य होने से सुख दुःख दोनों में ही ज्ञानी का अभिमान होना चाहिये, तथापि ज्ञानी दुःख को मायिक मान कर उसमें अध्यास नहीं करता । अतः ज्ञानी संग से सदा उदास रहता है । क्योंकि संग को सदा त्याग देना चाहिये । यहां पर सुख से आत्मसुख का ही ग्रहण है न कि मायिक सुख का क्योंकि वह तो ज्ञान में बाधक है, अतः ज्ञानी उसको तो पहले ही त्याग देता है ।
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*दादू धरती ह्वै रहै, तज कूड़ कपट अहंकार ।*
*सांई कारण सिर सहै, ताको प्रत्यक्ष सिरजनहार ॥३॥*
जो मिथ्या भाषाण, दम्भ, अहंकार को त्याग कर पृथ्वी की तरह क्षमा शील तथा कटु शब्दादिजन्य दुःखों को सहन कर लेता है । वह जीवन्मुक्त हो जाता है । 
सनात्सुजातीयोपनिषद् में कहा है कि- “जो वाणी का, क्रोध का, हिंसा तथा भूख प्यास और उपस्थ इन्द्रियजन्य वेगों को सहन करता है तथा निन्दा से नहीं डरता वह जीवन्मुक्त कहलाता है और उसको ब्रह्म का साक्षात्कार होता है ।”
(क्रमशः)

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