बुधवार, 4 नवंबर 2020

समर्थता का अंग २१ - ४२/४४

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भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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(#श्रीदादूवाणी ~ समर्थता का अंग २१ - ४२/४४)
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*देबे की सब भूख है, लेबे की कुछ नांहि ।*
*सांई मेरे सब किया, समझि देख मन मांहि ॥४२॥*
हे साधक ! परमेश्वर का ही यह सब जगत् बनाया हुआ है । अतः अपने मन में विचार कर देख, तुझे मालुम होगा कि वह पूर्ण काम निष्काम नित्यतृप्त तथा इच्छा रहित है ऐसा वेदों में सुना जाता है । अतः वह सदा देता ही है लेता कुछ भी नहीं है । अथवा जो भगवान् के निष्काम भक्त हैं वे भगवान् से भी कुछ लेना नहीं चाहते किन्तु सर्वस्व भगवान् को अपना अर्पण कर देते हैं । लिखा है कि भगवान् को तो अपने मान की भी इच्छा नहीं होती क्योंकि वे तो आत्म लाभ से पूर्ण रहते हैं । केवल करूणावश ही अपने भक्तों द्वारा की हुई परिचर्या को स्वीकार करते हैं । इससे भक्तों को ही लाभ होता है । जिस प्रकार दर्पण में प्रतीत होने वाली शोभा मुख को ही सुशोभित करती है । 
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*दादू जे साहिब सिरजै नहीं, तो आपै क्यों कर होइ ।*
*जे आप ही ऊपजै, तो मर कर जीवै कोइ ॥४३॥*
यह सृष्टि स्वयं नहीं पैदा होती क्योंकि कारण के बिना कोई भी कार्य पैदा नहीं होता । अतः परमात्मा ही इसका कारण हो सकता है । अन्यथा कोई भी दुःख रूप जन्म मरण की इच्छा नहीं करेगा । लेकिन जन्मना मरना पड़ता है । अतः यह सृष्टि परमेश्वर के ही अधीन है । श्रुति तथा ब्रह्मसूत्र में भी इस जगत् की उत्पत्ति स्थिति भंग परमात्मा से ही बतलाई है । अन्यथा नाम रूप वाला अनेक कर्तृत्व भोक्तृत्व से युक्त प्रति नियत देश काल निमित्त जो क्रिया फल उसके आश्रित मन से भी जिसकी रचना अचिन्त्य है ऐसे जगत् की जन्मस्थिति भंग सर्वज्ञ ईश्वर के बिना हो नहीं सकती । 
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*॥ कर्तृत्व कर्म ॥* 
*कर्म फिरावैं जीव को, कर्मों को करतार ।*
*करतार को कोई नहीं, दादू फेरनहार ॥४४॥*
यह जीव कर्म के अनुसार अपने कर्म फल भोगने के लिये स्वर्गादि लोकों में जाता है । कर्म का नियन्त्रण करने वाला परमेश्वर है । परमेश्वर तो अकर्ता अभोक्ता है । वह कहीं आता जाता नहीं । अतः इस जगत् का जगत् से भिन्न सर्वतंत्र स्वतंत्र सर्वसमर्थ परमात्मा ही कर्ता है यह सिद्ध हो गया । 
लिखा है कि- यह जीव कर्म से ही पैदा होता है और कर्म से ही मरता है तथा सुख दुःख भय शोक क्षेम यह सब जीव को कर्म से ही मिलते हैं । उच्चलोकों की प्राप्ति तथा वहां से पतन और शत्रु मित्र उदासीन यह सब कर्म से ही होते हैं ।
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॥ इति समर्थाई के अंग का पं. आत्मारामस्वामिकृतभाषानुवाद समाप्त ॥२१॥
(क्रमशः)

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