गुरुवार, 5 नवंबर 2020

*८. लै कौ अंग ~ ६१/६३*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*८. लै कौ अंग ~ ६१/६३*
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मन का रूप पिछांण यूं, तन का तक्ष कमाइ ।
जगजीवन मिलि सबद स्यूं, सहजैं सुन्नि समाइ ॥६१॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि हे जीव मन के स्वरूप को जान, देह के गौरव को जान, जो तुम्हें परमात्मा रुपी राजा ने पुत्रवत दी है, इसमें निरंतर भजन से तुम प्रभु के निकट सहज ही अपना ध्यान शून्य में लगाकर प्रभु के निकट हो जाओगे ।
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प्रश्न : कौंण घाट पाणी पिया, किस थल बैठा हंस ।
जगजीवन क्यूं बिलाणां१, तन का लोही मंस ॥६२॥
(१. बिलाणां=नष्ट हुआ)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे जीवात्मा रुपी हंस तुमने कौन से घाट का पानी पिया, और कहां जगत में प्रश्रय लिया जिससे तू इस प्रकार विछिन्न देह को प्राप्त हुआ । प्रभु जीव से कर्म कृत पूछ रहे हैं ।
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उत्तर : ब्रह्मघाट पाणी पिया, निज थल बैठा हंस ।
जगजीवन यूं बिलाणां, तन का लोही मंस ॥६३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीवात्मा भी कोइ प्रभु जन ही है जिसने उत्तर दीया कि जीव तो ब्रह्म समीप ही रहा और अपने नियत स्थान पर ही बैठा और हरि स्मरण में ही देह के रक्त मज्जा को लगा दिया ।
इति लै कौ अंग सम्पूर्ण ॥८॥
(क्रमशः)

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