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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*११. भगति संजीवनी कौ अंग ~ २९/३२*
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पलटै भ्रिंगी२ कीट ज्यूं, ए विग्यांन ये ग्यांन ।
कहि जगजीवन रांमजी, देह विदेह समांन ॥२९॥
(२. भ्रिंगी=भौंरा जाति का एक कीट)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिस प्रकार साधारण कीट संग से भृंगी हो जाता है, जिसमें क्या ज्ञान या विज्ञान है इसी भक्ति से यह देह भी विदेह हो जाती है, परमात्मा का स्वरूप पा जाती है, वे उसे अपना कर लेते हैं ।
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कहि जगजीवन रांमजी, विद्या अनंत अपार ।
संजीवनी निज नांम हरि, प्रेम भगति निज सार ॥३०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस संसार में अनंत अपार विद्या है । किन्तु जो विमुख को प्रभु सम्मुख पड़े मृत जीव को जीवन दें ऐसी संजीवनी विद्या प्रेम व भक्ति ही है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, सास्तर बंध प्रबंध ।
अक्षर अनंत उपाइ गुन, नांउ बिना सब धंध३ ॥३१॥
(३. धंध=भ्रमात्मक कर्म)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे राम जी सब शास्त्र बंधन के ही यत्न हैं, ये मुक्त नहीं करते, मुक्त तो प्रभु स्मरण ही है । बाकी सब शब्द विन्यास है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, घर घर दीपक जोइ ।
अंधियारे उजास४ करि, मंदिर मांहि संजोइ ॥३२॥
{४. उजास=प्रकाश(=उद्योत)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ज्ञान का दीपक हर मन रुपी घर में जगे अज्ञान रुपी अधंकार का पलायन हो व ज्ञान संचित हो ।
(क्रमशः)
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