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*दादू कर्त्ता करै तो निमष मैं, कीड़ी कुंजर होइ ।*
*कुंजर तैं कीड़ी करै, मेट सकै नहिं कोइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ समर्थता का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*चंदरहास गयो पठयो जित,*
*देख मदन्न गले सु लगायो ।*
*कागद हाथ दियो उन बांचत,*
*विप्र बुलाय रु ब्याह करायो ॥*
*रीति करी नृप जीत लिये धन,*
*देत गयो निठ१ चाव न मायो ।*
*आय पिता सुन मींच भई किन,*
*बींद हि देख घणों दुख पायो ॥६२॥*
चन्द्रहास को धृष्टबुद्धि ने जहाँ भेजा वहाँ वह जा पहुँचा । मदन ने देख कर उसे गले लगाया अर्थात् प्रेम से मिला । फिर चन्द्रहास ने वह पत्र मदन के हाथ में दिया । उसने पढ़ा और विप्रों को बुलवाकर उसी दिन गोधूली मुहूर्त में चन्द्रहास से अपनी बहिन विषया का विवाह करा दिया । विवाह के समय कुन्तलपुर नरेश भी पधारे थे । उनने भी देखा विवाह की रीति-अद्भुत थी । उनके मन में भी आया- मेरी कन्या चम्पकमालिनी के लिये भी यह योग्य वर है । उन्होंने चन्दनपुर के युवराज की विद्या, बुद्धि, शूरता आदि की प्रशंसा पहले ही बहुत सुन रक्खी थी । इससे अपनी पुत्री का विवाह चन्द्रहास से करने का निश्चय कर ही लिया था ।
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इस प्रकार चन्द्रहास की सुशीलता ने राजा के हृदय को जीत लिया था । चन्द्रहास को देने योग्य धनादि देने के बाद राजा बिना-ही-इच्छा१ अपने भवन को गये । उनके मन में विवाह का उत्सव समाया न था अर्थात् चन्द्रहास के विवाह में कुन्तलपुर नरेश को बड़ा आनन्द आया था । तीन दिन के पीछे मदन का पिता आया तब उसने चन्द्रहास की मृत्यु की बात तो किसी से नहीं सुनी उलटा बींद के रूप में चन्द्रहास को देखकर वह अत्यन्त दुःखी हुआ ।
(क्रमशः)
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