रविवार, 20 दिसंबर 2020

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*#श्रीदादू०अनुभव०वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग धनाश्री २७(गायन समय दिन ३ से ६)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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४२६ - चौताल
विषम बार हरि अधार, करुणा बहु नामी ।
भक्ति भाव बेग आइ, भीड़ भँजन स्वामी ॥टेक॥
अंत अधार सँत सुधार, सुन्दर सुखदाई ।
काम क्रोध काल ग्रसत, प्रकटो हरि आई ॥१॥
पूरण प्रतिपाल कहिये, सुमिरे तैं आवै ।
भरम कर्म मोह लागे, काहे न छुड़ावै ॥२॥
दीनदयालु होहु कृपालु, अंतरयामी कहिये ।
एक जीव अनेक लागे, कैसैं दुख सहिये ॥३॥
पावन पीव चरण शरण, युग युग तैं तारे ।
अनाथ नाथ दादू के, हरि जी हमारे ॥४॥
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कठिन समय में अति दयालु और अति प्रसिद्ध हरि ही आश्रय देते हैं । वे विपद् – विनाशक स्वामी, भक्ति - भाव युक्त भक्त के पास शीघ्र ही आ जाते हैं ।
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वे ही अन्तिम आश्रय हैं और सँतों के कार्य सुधार कर सुन्दर सुख प्रदान करते हैं । हे हरे ! काम क्रोध काल हमें खा रहा है, आप हृदय में आकर प्रकट रूप से दर्शन दीजिये ।
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आपको सँतशास्त्र पूर्ण रूप से भक्तों के रक्षक कहते हैं और आप भी स्मरण करने पर भक्तों के पास हृदयकमल में आते हैं । भ्रम, नाना प्रकार के कर्म और मोहादि मेरे पीछे लगे हैं, आप इनसे मुझे क्यों नहीं छुड़ाते ?
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आप तो अन्तर्यामी और दीनदयालु कहलाते हैं, कृपा करिये । एक जीव के पीछे अनेक कामादिक लग रहे हैं, इनका क्लेश कैसे सहा जाय ?
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हे पावन प्रियतम ! मैं आपके चरणों की शरण हूं । शरणागतों का आपने युग २ में उद्धार किया है, अत: अनाथों के नाथ हमारे हरिजी ! मेरा भी उद्धार करिये ।
(क्रमशः)

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