मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

= *स्वांग का अंग १३२(९७/१००)* =

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*दादू माला तिलक सौं कुछ नहीं, काहू सेती काम ।*
*अन्तर मेरे एक है, अहनिशि उसका नाम ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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काया छापी काठ करि, माल मेलि दश बीस ।
झाङ विलाई होय करि, किन पाया जगदीश ॥९७॥
काष्ठ की छाप लगाकर शरीर को छाप लिया और दश-बीस माला गले में पहन ली, इस प्रकार झाङ विलाई(शूलों से आच्छादित जंतु) होकर किसने जगदीश्वर को प्राप्त किया है ? जगदीश्वर तो भजन ज्ञानादि साधनों से ही मिलते हैं, भेष से नहीं ।
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स्वाँगी१ सब धुण सारिखे, पैठे२ काठहु मांहिं ।
जन रज्जब जलसी सभी, इहि घर छूटे नांहि ॥९८॥
सभी भेषधारी१ धुण के समान हैं जैसे धुण काष्ठ में घुसे२ रहते हैं, वैसे ही भेषधारी माला रूप काष्ठ में घुसे रहते हैं । काष्ठ में रहने वाले सभी धुण एक दिन अग्नि में जलते हैं, वैसे ही भेषधारी भी कालाग्नि में जलेंगे । इस भेष रूप घर में रहने से कालाग्नि से छुटकारा नहीं हो सकता ।
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ज्यों कुदें१ में दीजिये, रज्जब चोर हिं लेय२ ।
त्यों स्वांगी३ संकट पड़, कंठ काठ में देय ॥९९॥
जैसे चोर को पकङ२ कर उसका पैर काठ१ में देते हैं तब वह संकट में पङ जाता है, वैसे ही भेषधारी३ अपने कंठ को काठ में देकर दु:ख में प रहे हैं ।
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बंदि१ पङया संसार सब, षट्दर्शन२ वश होय ।
रज्जब मुक्ता स्वांग सौं, सो जन विरला कोय ॥१००॥
जोगी आदि छ: प्रकार के भेष२ धारियों के वश होकर सब संसार के प्राणी निज निज भेषफल रूप कैद१ में पड़े हैं, वह मानव विरला ही मिलता है जो भेष के आग्रह से मुक्त हो ।
(क्रमशः)

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