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*#श्रीदादू०अनुभव०वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग धनाश्री २७(गायन समय दिन ३ से ६)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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४३३ - *हितोपदेश* । चौताल
मनसा मन शब्द सुरति, पाँचों थिर कीजै ।
एक अँग सदा संग, सहजैं रस पीजै ॥टेक॥
सकल रहित मूल गहित, आपा नहिं जानैं ।
अंतर गति निर्मल रति, एकै मन मानैं ॥१॥
हिरदै सुधि विमल बुधि, पूरण परकासै ।
रसना निज नाम निरख, अंतर गति१ वासै ॥२॥
आत्म मति पूरण गति, प्रेम भगति राता ।
मगन गलित अरस परस, दादू रस माता ॥३॥
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हितकर उपदेश कर रहे हैं - बुद्धि, मन, शब्द, वृत्ति, पँच प्राण और पँच ज्ञानेन्द्रियों को स्थिर करके सहजावस्था द्वारा सदा अद्वैत ब्रह्म स्वरूप के अभेद रूप संग में रह कर ब्रह्मानन्द - रस का पान करो ।
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जो अहँकार को भूलकर सँपूर्ण मायिक प्रपँच से रहित अपने मूल ब्रह्म को उपास्य रूप से ग्रहण करता है और निर्मल प्रीति से वृत्ति हृदयस्थ आत्मा में ही रखता है, उसका मन अद्वैत ब्रह्म चिन्तन से ही सँतोष मानता है ।
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उसके शुद्ध हृदय में और विमल बुद्धि में पूर्ण ब्रह्म का प्रकाश प्रकट होता है, जिव्हा पर सत्य राम आदि निज नाम रहते हैं । उक्त साधना द्वारा स्वस्वरूप ब्रह्म का साक्षात्कार करके अन्तर्मुख वृत्ति१ द्वारा ब्रह्म में ही बसता है ।
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आत्म चिन्तन में ही बुद्धि लगी रहने से उसका गमन पूर्ण ब्रह्म में ही होता है और साधक प्रेमाभक्ति में अनुरक्त रहता है, स्वरूप चिन्तन में निमग्न होने से अहँकार गल जाता है और ब्रह्म से अरस - परस अभेद होकर अद्वैत - रस में मस्त रहता है ।
(क्रमशः)
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