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*कहै दादू जन जो कृत धारै,*
*भलो बुरो फल ताही लारै ।*
*झूठा परगट साचा छानै,*
*तिन की दादू राम न मानै ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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संग चलै सो साँच है, यहां रहै सो झूठ ।
तो क्या पण१ स्वांग शरीर का, रजू२ होहु भावे रूठ ॥८५॥
जो साथ चलता है, वह साधन ही सत्य है और जो यहा ही रह जाता है वह भेष मिथ्या है । तब शरीर के भेष का क्या बल१ है ? कुछ नहीं । इस पर चाहे प्रसन्न२ हो वा रुष्ट हो बात तो सत्य है ।
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स्वाँग१ सँगती२ देह लग, सो देही भी नाश ।
तो रज्जब तिस झूठ की, कहु क्या कीजे आश ॥८६॥
भेष१ तो देह तक साथी२ है, देह भी नष्ट हो जाता है । तब कहो उस मिथ्या भेष से उद्धार की क्या आशा की जाय ।
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प्राणी आया पिंड ले, भेष दिया भरमाय ।
रज्जब वपु बाने रहै, हंस अकेला जाय ॥८७॥
प्राणी शरीर को लेकर आया था । किंतु भेषधारियों ने भ्रम में डालकर उसे भेष दे दिया तो क्या ? वह शरीर और भेष यहां ही रह जाते हैं जीव तो अकेला ही कर्मानुसार जाता है ।
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रज्जब बाने१ वंद्या२ रासिभा३, बिन बाने भये काल ।
पांडौ४ परिहर करैंगे, जिव के कौन हवाल ॥८८॥
किसी ने गधे३ पर गैरिवाँ रंग का वस्त्र१ देखकर उसे प्रणाम२ कर लिया तो क्या ? उस वस्त्र के उतारते ही पुन: वह प्रणाम करने वाला ही उसके लिये काल रूप हो जाता है, अत: रंग४ का भरोसा त्याग कर भजन कर, भेष के भरोसे पर रहने से यमदूत जीव की क्या दशा करेंगे उसका तुझे पता भी नहीं है ।
(क्रमशः)
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