🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷🙏 *#श्री०रज्जबवाणी* 🙏🌷
*जिस देखे तूँ फूलिया रे, पाणी पिंड बधाणां मांस ।*
*सो भी जल-बल जाइगा, झूठा भोग विलास ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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जा ज्वर उतरै जगत की, जती१ चढै तिहिं ताप ।
रज्जब ऐसी गूदड़ी, ओढत मरिये बाप ॥१०९॥
जिस गुदड़ी से जगत के मानवों का ज्वर उतरता है, उसी से साधु१ के ज्वर चढ़ जाता है, यह गुदड़ी ऐसी है, बाप रे बाप ! इसके तो ओढ़ने से भी साधु अभिमान का मारा मर जाता है ।
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आरोही१ सम दीखती, तज कठोर मत काम ।
काठौं चढ़ त्यागी गहैं, मिथ्या कहै सु राम ॥११०॥
यह गुदड़ी त्यागी के ऊपर चढ़ी१ हुई सी भासती है, इस कठोर मत के काम को छोड़ दे । ये लोग खड़ाऊ रूप काष्ठ पर चढ़ कर अपने को त्यागी कहते हैं किंतु मन प्रतिष्ठा बढाने के उपाय में लगा रहता है । इसका मुख से राम कहना तो दंभ मात्र होने से मिथ्या ही है ।
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रज१ छंट२ हु छीते३ भये, हेर४ हु होली लोय५ ।
तो रज्जब बहु बरन६ कर, क्यों न बावला७ होय ॥१११॥
देखो४, होली के दिनों में रेत१ और रंग की बिन्दुओं२ से भी लोग५ तितर३ बितर हो जाते हैं, तब बहुत सा रंग६ लगाकर तो मनुष्य क्यों पागल७ होगा ।
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नाम लिये नर निस्तरहि, ताथै लीजे नाम ।
जन रज्जब जाणें नहीं, स्वांग सरै क्या काम ॥११२॥
हरि नाम चिन्तन से ही नर का उद्धार होता है, इसलिये नाम का ही चिन्तन करो, लोग इस रहस्य को जानते नहीं हैं, इससे भेष बनाते हैं किंतु भेष से क्या मुक्ति रूप कार्य सिद्ध होता है ?
(क्रमशः)

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