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*सारा सूरा नींद भर, सब कोई सोवै ।*
*दादू घायल दर्दवंद, जागै अरु रोवै ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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मुखर्जी – योगभ्रष्ट क्यों होते हैं?
श्रीरामकृष्ण – कहते हैं न ‘जब मैं गर्भ में था तब योग में था, पृथ्वी पर गिरते ही मिट्टी खायी । धाई ने तो मेरा नार काटा; पर यह माया की बेडी कैसे काटूँ ?’
“कामिनी-कांचन ही माया है । मन से इन दोनों के जाते ही योग होता है । आत्मा – परमात्मा – चुम्बक पत्थर है, जीवात्मा एक सूई है – उनके खींच लेने ही से योग हो गया । परन्तु सूई में अगर मिट्टी लगी हुई हो, तो चुम्बक नहीं खींचता – मिट्टी साफ कर देने से फिर खींचता है । कामिनी-कांचन मिट्टी है, इसे साफ करना चाहिए ।”
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मुखर्जी – यह किस तरह साफ हो ?
श्रीरामकृष्ण – उनके लिए व्याकुल होकर रोओ । वही जल मिट्टी पर गिरने से मिट्टी धुल जाएगी । जब खूब साफ हो जाएगी तब चुम्बक खींच लेगा । योग तभी होगा ।
मुखर्जी – अहा ! कैसी बात है !
श्रीरामकृष्ण – उनके लिए रो सकने पर उनके दर्शन होते हैं – समाधि होती है । योग में सिद्ध होने से ही समाधि होती है । रोने से कुम्भक आप ही आप होता है । - उसके बाद समाधि ।
“एक उपाय और है – ध्यान । सहस्त्रार कमल(मस्तक) में विशेष रूप से शिव का अधिष्ठान है – उसका ध्यान । शरीर आधार है और मन-बुद्धि जल । इस पानी पर उस सच्चिदानन्द सूर्य का बिम्ब गिरता है ! उसी बिम्बसूर्य का ध्यान करते करते उनकी कृपा से यथार्थ सूर्य के भी दर्शन होते हैं ।
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*साधुसंग करो और आम-मुखतारी दे दो*
“परन्तु संसारी मनुष्यों के लिए तो सदा ही साधुसंग की आवश्यकता है । यह सभी के लिए आवश्यक है; संन्यासियों के लिए भी । परन्तु संसारियों के लिए यह विशेषकर आवश्यक है । उन्हें रोग लगा ही हुआ है – कामिनी-कांचन में सदा ही रहना पड़ता है ।”
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मुखर्जी – जी हाँ, रोग लगा ही हुआ है ।
श्रीरामकृष्ण – उन्हें आम-मुखतारी दे दो – वे जो चाहे सो करें । तुम बिल्ली के बच्चे की तरह उन्हें पुकारते भर रहो – व्याकुल होकर । उसकी माँ उसे चाहे जहाँ रखे – वह कुछ भी नहीं जानता; -कभी बिस्तर पर रखती है तो कभी रसोईघर में !
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मुखर्जी – गीता आदि शास्त्र पढ़ना अच्छा है ।
श्रीरामकृष्ण – केवल पढ़ने-सुनने से क्या होगा ? किसी ने दूध का नाम मात्र सुना है, किसी ने दूध देखा है और किसी ने दूध पिया है । ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं और उनसे वार्तालाप भी किया जा सकता है ।
“पहले प्रवर्तक है – वह पढ़ता-सुनता है । उसके बाद साधक है, - उन्हें पुकारता है, ध्यान-चिन्तन और नामगुण-कीर्तन करता है । इसके बाद सिद्ध – उसे हृदय में उनका अनुभव हुआ है, उनके दर्शन हुए हैं । इसके बाद है सिद्ध का सिद्ध – जैसे चैतन्यदेव की अवस्था – कभी वात्सल्य और कभी मधुर भाव ।”
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मणि, राखाल, योगीन्द्र, लाटू आदि भक्तगण ये सब देवदुर्लभ तत्त्वपूर्ण कथाएँ आश्चर्यचकित होकर सुन रहे हैं ।
अब मुखर्जी और उनके साथवाले विदा होंगे । वे सब प्रणाम करके उठ खड़े हुए । श्रीरामकृष्ण भी, शायद उन्हें दिखाने के उद्देश्य से खड़े हो गये ।
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मुखर्जी(सहास्य) – आपके लिए उठना और बैठना !
श्रीरामकृष्ण(सहास्य) – उठने और बैठने में हानि क्या है? पानी स्थिर होने पर भी पानी है और हिलने-डुलने पर भी पानी ही है । आँधी में जूठी पत्तल, हवा चाहे जिस और उड़ा ले जाय । मैं यन्त्र हूँ, वे यंत्री हैं ।
(क्रमशः)

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