शनिवार, 9 जनवरी 2021

*तन मन धन अर्पि हरि मिले*

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*दादू राम रसाइन नित चवै, हरि है हीरा साथ ।*
*सो धन मेरे साइयां, अलख खजाना हाथ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ स्मरण का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,* 
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान* 
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
*शतधन्वा वैवस्व नहुष, उतंग भूरिदबल ।*
*यदु ययाति शरभंग, पूरु दियो योवन बल ॥*
*गय दिलीप अम्बरीष, मोरध्वज शिवि र पंडु ध्रुव ।*
*चन्द्रहास अरु रंति, मानधाता चकवै भुव ॥*
*संजय समीक निमि भरद्वाज, वाल्मीकि चित्रकेतु दक्ष ।*
*तन मन धन अर्पि हरि मिले, जन राघव येते राज रिष ॥५५॥*
अपने तन, मन और धन को हरि के समर्पण करके इतने राजर्षि हरि को प्राप्त हुये हैं- *{पञ्चम अंश}*
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*४१.दल-* दलजी इक्ष्वाकु वंशी राजा परीक्षित के पुत्र थे । इनकी माता मंडूकराज की कन्या सुशोभना थी । अपने बड़े भाई शल के मारे जाने पर यह राजा हुए थे ।
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*४२.गय-* राजर्षि गय जी प्रियव्रत के कुल में राजा नक्त के द्वारा द्रुति से उत्पन्न हुए थे । एक समय यज्ञ करते हुये इनने इच्छा करी- “जैसे देवताओं ने कृपा करके प्रत्यक्ष होकर अपने भाग लिया है वैसा ही हरि भी प्रकट होकर दर्शन देने की कृपा करें तो अच्छा हो ।” किन्तु ऐसा नहीं हुआ । राजा ने हरिदर्शन करने के लिये अन्न-जल त्याग दिया तब हरि ने उन्हें दर्शन दिया । फिर राजा यज्ञ पूर्ण करके बदरीकाश्रम में जाकर भजन करते हुये प्रभु को प्राप्त हुये थे । दूसरे गय- आयु के द्वारा स्वर्भानुकुमारी के गर्भ से उत्पन्न चतुर्थ पुत्र, पुरुरवा के पौत्र हुये हैं । 
*४३.दिलीप-* राजर्षि दिलीप जी सगर के प्रपौत्र, अंशुमान के पुत्र और भगीरथ के पिता थे । आप अयोध्या के राजा थे । एक दिन रावण ब्राह्मण के वेश में इनके पास आया था । ये पूजा कर रहे थे । इनने उसी समय एक कुश और कुछ जल दक्षिण दिशा की ओर फेंका । ब्राह्मण वेशधारी रावण ने पूछा-“आपने यह क्या किया है ।” दिलीप बोले-“वन में गाय चर रही थीं, उनको सिंह पकड़ना चाहता था । मैंने मंत्रित करके वह तृण सिंह पर फेंका है । उससे सिंह मारा गया, गौओं की रक्षा हो गई किन्तु वह तृण लंका में जाकर रावण का घर जलाने लगा था । उसको बुझाने के लिये मैंने जल फेंका था ।” रावण ने शीघ्र आकर देखा तो दिलीप की सब बातें सच्ची निकली । रावण दिलीप से डरता था । राजर्षि दिलीप ने राज्य अपने पुत्र भगीरथ को दे दिया और आपने वन में जाकर गंगाजी को लाने के लिये तप करते हुए शरीर का अन्त कर दिया । आपका मनोरथ गंगा लाकर भगीरथ ने पूरा किया । 
*४४.अम्बरीष-* राजर्षि अम्बरीष सूर्यवंशी राजा नाभाग के पुत्र थे । इनने यमुना तट पर यज्ञ किया था । अम्बरीष जी की भक्ति प्रधान कथा पद्य टीका ४७ से ५२ पद्यों में पहले आ गई है, वहाँ देखें । 
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*४५.मोरध्वज-* रत्नपुरी के नरेश राजर्षि मयूरध्वज की भक्ति प्रधान कथा पद्य टीका में पद्य ७७ से पद्य ८१ तक देखें ।
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*४६.शिवि-* राजर्षि शिवि धर्मधुरन्धर, दयासिन्धु, धर्ममयी भक्ति में प्रसिद्ध हैं । इनकी धर्मविषयक परीक्षा देवताओं ने ली थी । इन्द्र बाज पक्षी, और अग्नि कबूतर बने । बाज कबूतर पर झपटा । कबूतर शिवि की गोद में जा छिपा और बोला-“मैं आपकी शरण आया हूँ, मुझे बाज से बचाइये ।” बाज ने कहा यह पक्षी मेरा आहार है । मेरे भोजन में बाधा न डालिये । इसे मुझे दे दीजिये । राजा ने कहा मैं नहीं दूंगा । अन्त में बाज ने कहा- कपोत के बराबर तुम अपना मांस दे दो तो मैं कपोत को छोड़ देता हूँ । राजा मांस काट कर चढ़ाने लगे किन्तु कबूतर भारी ही रहता था । राजा ज्यों ही अपना सब शरीर देने लगे तब इन्द्र और अग्नि प्रकट हो गये । राजा का शरीर पूर्ववत् हो गया था । इच्छित वर देकर देवता अन्तर्धान हो गये ।
*४७.पंडु(पांडु)-* राजर्षि पांडु विचित्रवीर्य के क्षेत्रज्ञ पुत्र महर्षि व्यास के द्वारा विचित्रवीर्य की पत्नी अम्बालिका के गर्भ से उत्पन्न हुये थे । ये पाण्डवों के पिता थे । इनकी कथा विस्तार से महाभारत इतिहास में हैं ।
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*४८.ध्रुव-* राजर्षि ध्रुव उत्तानपाद के पुत्र प्रसिद्ध भगवद् भक्त हुये हैं इनकी कथा पहले आ चुकी है ।
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*४९.चन्द्रहास-* राजर्षि चन्द्रहास मेधावी नामक केरल देश के राजा के पुत्र थे । इनकी कथा पहले आ चुकी है ।
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*५०.रंति(रंतिदेव)-* राजर्षि रन्तिदेव दुष्यन्त-वंशी राजा संकृति के पुत्र थे । ये सांय-प्रातः स्मरण करने योग्य राजर्षियों में गिने जाते हैं । आप बड़े ही तपस्वी थे । एक समय अड़तालीस उपवास होने पर आपको अन्न जल मिला था । उसमें से प्रथम एक भूखे ब्राह्मण को खिलाया । पीछे एक भूखे शूद्र को दिया फिर एक नीच को और शेष भूखे कुत्ते को खिला पिला दिया । आप भूखे ही रह गये । यह इनकी दयालुता तथा सम दृष्टि का परिचय है । ये सबमें सर्वात्मा हरि को ही देखते थे । 
उक्त प्रकार तपस्या और भक्ति देखकर प्रभु ने इनको दर्शन देकर कृतार्थ किया । प्रभु को प्रसन्न देखकर आपने प्रभु से वर मांगा- “सर्व जीवों का दुःख मुझे ही प्राप्त हो वे सब दुःख रहित रहें ।” प्रभु इनकी उक्त भावना से अति प्रसन्न हुये और इनको स्त्री, पुत्र तथा पुत्र वधू के सहित निजलोक को ले गये ।
(क्रमशः)

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