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*#श्रीदादू०अनुभव०वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग धनाश्री २७(गायन समय दिन ३ से ६)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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४४१ - उदीक्षण ताल
आरती जगजीवन तेरी,
तेरे चरण कवल पर वारी फेरी ॥टेक॥
चित चांवर हेत हरि ढारै,
दीपक ज्ञान हरि ज्योति विचारै ॥१॥
घँटा शब्द अनाहद बाजै,
आनँद आरती गगन गाजै ॥२॥
धूप ध्यान हरि सेती कीजै,
पुहुप प्रीति हरि भांवरि लीजै ॥३॥
सेवा सार आतमा पूजा,
देव निरंजन और न दूजा ॥४॥
भाव भक्ति सौं आरती कीजै,
इहि विधि दादू जुग जुग जीजै ॥५॥
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हे जग - जीवन ! हम आपकी आरती करते हैं और आपके चरण - कमलों पर निछावर होते हैं ।
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शुद्ध चित्त से चिन्तन करना रूप चंवर हरि पर सस्नेह करते हैं । विचार रूप ज्योति वाला ज्ञान - दीपक जलाते हैं ।
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अनाहत नाद रूप घँटा बजाते हैं । आनन्द रूप आरती गाने की ध्वनि – गर्जना हृदयाकाश में हो रही है ।
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और नाना प्रकार के सुगन्धित पुष्प, माला आपके ऊपर चढ़ा रहे हैं । और ब्रह्म - वाणी रूप दयाल ! हम आपकी बारबार परिक्रमा करते हैं ।
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हरि के आगे जीवात्मा रूप उपासक की सार रूप सेवा पूजा है, निरंजन देव ही उपास्य देव है, अन्य दूसरा कोई नहीं है ।
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इस प्रकार भाव - भक्ति से जो आरती करता है, वह ब्रह्म रूप होकर प्रति युग में जीवित रहता है ।
(क्रमशः)

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