रविवार, 10 जनवरी 2021

काल का अंग २५ - ३०/३४

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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(#श्रीदादूवाणी ~ काल का अंग २५ - ३०/३४)
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*पंथ दुहेला दूर घर, संग न साथी कोइ ।*
*उस मारग हम जाहिंगे, दादू क्यों सुख सोइ ॥३०॥*
अज्ञानियों के लिये निर्गुण भक्ति का मार्ग कठिन है । क्योंकि उपनिषद् में लिखा है कि- फरसे की धार की तरह तीखा है । अतः विद्वान् पुरुष इसको कठिन बतलाते हैं । सर्वव्यापक परमात्मा भी अज्ञानियों के लिये दूर से भी दूर हैं और ज्ञानी के लिये तो बहुत ही समीप हैं । इस मार्ग में चलने वाले साधक का कोई स्त्री पुत्रादिक सहयोगी भी नहीं बन सकते प्रत्युत वे तो बाधक हैं । इसलिये लिखा है कि- वह आत्मा कर्म से सन्तान तथा धनादिकों से नहीं मिलता प्रत्युत इन सब के त्याग से ही अमृतत्व को प्राप्त होता है । अतः मुक्ति चाहने वाले को इन सबको विष की तरह त्याग देना चाहिये । हम तो इसी ज्ञान मार्ग से चाहे कठिन ही क्यों न हो चलना चाहते हैं । अतः इस मार्ग से चलने वाले साधक को काम क्रोधादिकों से सदा जागते रहना चाहिये । क्योंकि ये चोर हैं । हमारे ज्ञान रत्न को चुराते रहते हैं ।
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*लंघण१ के लकु२ घणा, कपर३ चाट४ डीन्ह ।*
*अलह पांधी५ पंध६ में, बिहंदा७ आहीन८॥३१॥*
ज्ञान मार्ग की कठिनता दिखला रहे हैं श्री दादू जी महाराज । यह मार्ग इतना कठिन है कि काम क्रोध लोभ मोह ईर्ष्या असूया आदि अनेक शत्रु मार्ग रोक कर खड़े हैं । निरन्तर सुख दुःख रूपी वृक्ष खण्डों से व्याप्त होने के कारण साधक चलने में भी असमर्थ हो जाता है । भोगों की आशा से यह भयंकर प्रतीत हो रहा है । क्योंकि उनका त्यागना कठिन है और उनका कहीं अन्त ही नहीं दिखता है जिस आशा को कोई आज तक पार ही नहीं कर सका, ऐसी आशा नदी अपने मनोरथ जल से उत्ताल तरंगों के द्वारा मार्ग में नाच रही है । अतः साधक को इस मार्ग में सावधान होकर चलना चाहिये । अथवा यह संसार समुद्र अपार है उसको पार करने के लिये जो ज्ञान रूपी नौका है वह भी दो दण्डों के बिना अधूरी है । साधक यद्यपि ज्ञान मार्ग में चल पड़ा है परन्तु साधनों के बिना कैसे इस मार्ग को पार करेगा । अतः साधक को साधनसंपन्न होना चाहिये ।
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*॥ काल चितावणी ॥*
*दादू हसतां रोतां पाहुणा, काहू छाड़ न जाइ ।*
*काल खड़ा सिर ऊपरै, आवणहारा आइ ॥३२॥*
कन्या के पिता के घर से उसका पति चाहे वह रोवे या हँसे उसकी इच्छा न होने पर भी हाथ पकड़ कर जबरदस्ती से अपने घर में ले आता है । उसी प्रकार काल भी जीव को हठात् पकड़ कर ले जाता है । चाहे वह जीव न जाना चाहता हो तब भी ले जाता है ।
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*दादू जोरा बैरी काल है, सो जीव न जानै ।*
*सब जग सूता नींदड़ी, इस तानै बानै ॥३३॥*
यह काल प्राणियों का प्रबल बैरी है, इस बात को कोई भी नहीं जानता । इसीलिये सारा संसार अविद्या निद्रा में सो रहा है । कोई भी नहीं जागता । प्रत्युत परस्पर में व्यवहार करते हुए अपनी आयु को व्यर्थ ही खो रहे हैं । अतः साधक को काल से सावधान रहना चाहिये । यह भाव है ।
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*दादू करणी काल की, सब जग परलै होइ ।*
*राम विमुख सब मर गये, चेत न देखै कोइ ॥३४॥*
इस संसार में अनादि काल से अधर्म में लगे हुए दुष्टबुद्धि वाले हरि से विमुख होकर प्राणी अपने पाप कर्मों से प्रलय को प्राप्त होते रहते हैं और अभी तक वे संसार चक्र में फिर रहे हैं । परन्तु सत्कर्म नहीं करते जिससे उनका कल्याण हो जाये । प्रत्युत मृत्यु के लिये ही यत्न करते रहते हैं उनमें से कोई भी कल्याण का मार्ग नहीं अपनाता । जिससे उनका मोक्ष हो जाये । 
नारदपुराण में कहा है कि- धन से अन्धा प्राणी देखता हुआ भी नहीं देखता । जो अपना कल्याण को देखता है वह ही वास्तविक देखने वाला माना गया है ।
(क्रमशः)

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