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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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(#श्रीदादूवाणी ~ काल का अंग २५ - ८/११)
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*फूटी काया जाजरी, नव ठाहर काणी ।*
*तामें दादू क्यों रहै, जीव सरीषा पाणी ॥८॥*
यह शरीर नष्टप्रायः ही है । बुढ़ापा इस को जीर्ण कर रहा है तथा कान नाक मुख नेत्र तथा मल मूत्र मार्ग इन नो छिद्रों वाला है । ऐसे जीर्ण शीर्ण इस शरीर में जीवात्मा कैसे चिरस्थायी रह सकता है ।
महाभारत में- बुढ़ापा इस शरीर पर सिंहनी की तरह आक्रमण कर रहा है । रोग समूह शत्रु की तरह इसके विनाश में लगे हुए हैं । फूटे हुए घड़े में पानी की तरह आयु प्रतिक्षण नष्ट हो रही है । फिर भी अज्ञानी इसको चिरस्थायी मानकर अपना अहित ही कर रहा है । अतः इसके चिरस्थायिता के भाव को त्याग कर राम भजन करो ।
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*बाव भरी इस खाल का, झूठा गर्व गुमान ।*
*दादू विनशै देखतां, तिसका क्या अभिमान ॥९॥*
वायु से भरे हुए चर्म से लिपटे हुए इस क्षणभंगुर शरीर के बल सौन्दर्य आदि का क्या अभिमान कर रहा है । क्योंकि यह देखते देखते ही नष्ट हो जाता है । लिखा है कि-
इस शरीर में हाड़ तो खंभे है । स्नायु जालों से यह बंधा हुआ है । चर्म से लिपटा हुआ है । मांस तथा खून से लिपा हुआ है । दुर्गन्ध से भरा पड़ा है । मूत्रपुरीष का तो यह पात्र ही है । जरा, शोक इस का विपाक है । रोग का तो यह घर ही है । तथा दुष्पूर दुर्धर और दोषों से दूषित और क्षणभंगुर है तथा मरने के बाद कीड़े इसको खाकर विष्ठा बना देते हैं या अग्नि में जल कर भस्म हो जाता है । ऐसा यह शरीर है । इसका अभिमान व्यर्थ ही है । अतः साधक को चाहिये कि इस शरीर से स्थिर कार्य करे, जिससे कल्याण हो जाय ।
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*दादू हम तो मूये मांहि हैं, जीवण का रू भरम ।*
*झूठे का क्या गर्वबा, पाया मुझे मरम ॥१०॥*
मैंने ज्ञान द्वारा यह जान लिया है कि यह शरीर तो मुर्दा ही है, अनात्मा होने से । इसके जीने का तो केवल भ्रममात्र है । अतः अनात्मा समझकर मैं इस शरीर का अभिमान नहीं करता ।
विवेकचूडामणि में- जहर के समान जो विषय है, उनकी आशा को काट डालो । क्योंकि यह ही जन्म मरण का कारण है और जाति कुल आश्रम आदि का भी अभिमान मत करो । नाना क्रियाओं को तो दूर से ही नमस्कार कर लो । देह भी असत्य है, इसमें जो सत्य बुद्धि है उसको त्याग कर अपने को निर्मल अद्वय ब्रह्म रूप समझते हुए इन सबका दृष्टा समझो क्योंकि वस्तुतः केवल ब्रह्म ही है बाकी तो सब अवस्तु है ।
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*यहु वन हरिया देखकर, फूल्यो फिरै गँवार ।*
*दादू यहु मन मृगला, काल अहेड़ी लार ॥११॥*
यह मन इस संसाररूपी जंगल में विषयभोग के सुख की इच्छा से मृग की तरह पागल होकर दौड़ रहा है और प्रसन्न हो रहा है, लेकिन इसको यह ज्ञान नहीं है कि मेरे पीछे मृत्यु रूपी शिकारी मारने के लिये पीछे-पीछे दौड़ रहा है । न मालुम कब मुझे मार डालेगा । यह ही इस मन की अज्ञता है ।
लिखा है कि- इस असार संसार में प्राणियों को सुख की भ्रान्ति हो रही है । प्रत्युत इसमें सुख कहीं भी नहीं है । जैसे बालक को अपने अंगूठे के पीने में स्तन पान की भ्रान्ति होती है ।
(क्रमशः)
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