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*चार पदार्थ मुक्ति बापुरी, अठ सिधि नव निधि चेरी ।*
*माया दासी ताके आगे, जहँ भक्ति निरंजन तेरी ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ माया का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*माया मध्य मुकत बहत्तर जनक भये,*
*चित्रके से दीप रहे धार्यो धर्म समता ।*
*सुख दुःख रहित गहत सतसंग सार,*
*तजे हैं विकार काहू से न मोह ममता ॥*
*ऐसे नग जनम जनत सेती१ जीत गये,*
*बंदगी में विघन न पारी कहौं कमता२ ।*
*श्रवण मनन मन वच कर्म धर्म करि,*
*राघो ऐसे राज में रिझायो राम रमता ॥६४॥*
बहत्तर जनक माया के मध्य अर्थात् राज्य करते हुये मुक्त हुये हैं । जैसे चित्र लिखित दीपक एक रस रहता है वैसे ही ये समता रूप धर्म को धारण करके एक रस रहे थे ।
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सुख दुःख आदि द्वन्दों से रहित रह कर सत्संग के द्वारा सार तत्व को ग्रहण किया था । आसुर गुण रूप विकारों का त्याग किया था । न उनका किसी से मोह हुआ था और न उन्होंने किसी में ममता ही की थी ।
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इस प्रकार अपने नर जन्म रूप नग को साधन से१ जीत गये थे अर्थात् सफल कर गये थे । न संत सेवा में अश्रद्धा रूप विघ्न आने दिया था और न कहीं उसे आलस्य तथा कृपणता से कम ही किया था ।
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सदा वेदान्त का श्रवण, मनन करते रहते थे । मन, वचन और कर्म से धर्म के कार्य भी करते रहे थे । इस प्रकार राज्य करना रूप मायिक व्यवहार में रह कर भी रमता राम परब्रह्म को निदिध्यासन द्वारा रिझाकर ब्रह्मभाव को प्राप्त हुये हैं ।
(क्रमशः)

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