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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷🙏 *#श्री०रज्जबवाणी* 🙏🌷
*दादू स्वांग सगाई कुछ नहीं, राम सगाई साच ।*
*साधू नाता नाम का, दूजै अंग न राच ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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स्वांग स्वांग सारे कहैं, नहीं नाम की चीत ।
जन रज्जब भूला जगत, यहु देखे विपरीत ॥१३७॥
सब कहते हैं - भेष धारण करो, भेष धारण करो, किंतु हरि-नाम चिंतन की बात नहीं कहते, जगत के लोग प्रभु को भूल रहे हैं तभी तो देखो, यह विपरीत बात कहते हैं ।
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मुख मुख उकटे१ खार से, शहर सियाला२ देखि ।
महंत ही ऊषर भये, बानौ करै विशेखि ॥१३८॥
जैसे शीत२ काल में स्थान स्थान पर पृथ्वी से खार निकलता१ है और ऊषर भूमी से तो विशेष निकलता है वैसे ही शहर में देखो, तिलक करने वालों के प्रत्येक मुख पर तिलक खार उकटने के समान लगता है और महंतों के तो तिलक रूप बाना विशेष किया जाता है, वे तो ऊषर भूमी के समान ही प्रतीत होते हैं ।
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देही दर्शन१ फेरिये२, दिन देखत सौ बार ।
रज्जब मन फेरत कठिन, जो युग जांहि अपार ॥१३९॥
शरीर का भेष तो एक दिन में देखते देखते सौ बार बदला१ जा सकता है किंतु मन को बदलने का उपाय करते करते यदि अपार युग व्यतीत हो जाय तो भी उसका बदलना कठिन है ।
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स्वांग१ किया सहिनाण२ को, जीवहिं पावे जीव ।
जन रज्जब इस मामले३, कह किन४ पाया पीव ॥१४०॥
भेष१ तो पहचान२ के लिये बनाया है, जिससे जीव को जीव पहचान सके, बाकी कहो, इस भेष के व्यवहार३ से किसने४ प्रभु को प्राप्त किया है ?
(क्रमशः)

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