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*दादू सिरजनहारा सबन का, ऐसा है समरत्थ ।*
*सोई सेवक ह्वै रह्या, जहँ सकल पसारैं हत्थ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ विश्वास का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*द्रौपदी की पद्य टीका*
*द्रौपदि बात कहै दक्ष कौन सु,*
*खैंचत अम्बर ढ़ेर भयो है ।*
*द्वारिका वासि कह्यो सु हुतो ढिग,*
*स्वैपुर जाय रु आय रह्यो है ॥*
*शाप दिवावन भेज द्रुवासहि,*
*जात युधिष्ठिर शीश नयो है ।*
*धोय चरी तिय आय कही नृप,*
*सोच भयो कत्त कृष्ण गयो है ॥६९॥*
द्रौपदी की भक्ति की कथा पूर्ण रूप से कथन कर सके, ऐसा चतुर कवि तो कौन है? देखो ! उनके जीवन की घटना कितनी विचित्र है । जब कौरव सभा में बलवान् दुष्ट दुःशासन इनको नंगी करने लगा तब वस्त्र की राशि लग गई थी किन्तु वह नंगी नहीं कर सका था । यद्यपि परमात्मा व्यापक होने से पास ही थे किन्तु उस समय द्रौपदी ने भगवान् को द्वारिका वासी नाम से पुकारा था, इसी से वे अपने पुर द्वारिका जाकर आये तो क्षण भर देर हो गई थी ।
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दूसरी कथा- जब पाण्डव द्रौपदी के साथ काम्यक वन में निवास कर रहे थे तब दुर्योधन ने पाण्डवों को शाप दिलाने के लिये दुर्वासा को उनके दश हजार शिष्यों के साथ ऐसे समय पर भेजा था जब द्रौपदी भोजन कर चुकी थी । वहां पहुँचने पर युधिष्ठिर ने शिर नमा कर प्रणाम किया तथा भोजन के लिये भी प्रार्थना की । दुर्वासा ने कहा- मध्यान्ह की सन्ध्या कर के भोजन करेंगे ।
वे स्नान सन्ध्या के लिये गंगा पर गये तब द्रौपदी को कहा- ऋषि दुर्वासा दस हजार शिष्यों के सहित भोजन करेंगे । उसने कहा- मैं भोजन कर चुकी हूँ । यह सुनते ही राजा महाचिन्ता में पड़ गये । कारण-द्रौपदी के भोजन करने के पीछे सूर्य का दिया हुआ सिद्धपात्र अन्न नहीं देता था, उससे पहले चाहे जितना ही देता रहता था । द्रौपदी ने कहा- चरी धोकर रख दी है, और कोई उपाय हो नहीं सकता । यह सुनकर युधिष्ठिर अत्यन्त व्यथित हुए । तब द्रौपदी ने कहा- मुझे उपाय ज्ञात हो गया है हमारे रक्षक भगवान् श्रीकृष्ण कहीं नहीं गये हैं ।
(क्रमशः)

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