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*#श्रीदादू०अनुभव०वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग धनाश्री २७(गायन समय दिन ३ से ६)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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४३५ - त्रिताल
ए ! प्रेम भक्ति बिन रह्यो न जाई,
परगट दर्शन देहु अघाई ॥टेक॥
तालाबेली तलफै मांहीं,
तुम बिन राम जियरे जक१ नांहीं ॥१॥
निशिवासर मन रहे उदासा,
मैं जन व्याकुल सास उसासा ॥२॥
एकमेक रस होइ न आवै,
तातैं प्राण बहुत दुख पावै ॥३॥
अँग संग मिल यहु सुख दीजै,
दादू राम रसायन पीजै ॥४॥
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हे प्रभो ! आपकी प्रेमाभक्ति बिना मुझसे नहीं रहा जाता और आपके दर्शन न होने से इस प्रेमाभक्ति में दु:ख होता है, अत: आप हृदय में प्रकट होकर दर्शन दें, जिससे मैं तृप्त होकर सुखी हो जाऊं ।
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भीतर मेरा मन व्याकुलता से तड़फ रहा है । राम ! आपके बिना हृदय को शाँति१ नहीं है ।
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मेरा मन रात्रि - दिन खिन्न रहता है । मैं आपका भक्त श्वास २ प्रति व्याकुल होता रहता हूं ।
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आपके स्वरूप में अभेद होकर अद्वैतानन्द - रस नहीं मिल रहा है, इससे मन बहुत दु:ख पा रहा है ।
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आप मेरे आत्म रूप अँग के साथ मिलकर इस अभेद स्थिति का सुख दीजिये, जिससे मैं एकत्व चिन्तन रूप राम - रसायन पान करके मस्त रहूं ।
(क्रमशः)
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