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*ज्यों यहु समझै त्यों कहो, यहु जीव अज्ञानी ।*
*जेती बाबा तैं कही, इन एक न मानी ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ समर्थता का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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“हिमालय के घर में पार्वती ने जन्मग्रहण किया, और अपने अनेक रूप पिता को दिखाने लगीं । हिमालय ने कहा, ‘बेटी, ये सब रूप तो देखे । परन्तु तुम्हारा एक ब्रह्मस्वरूप है – उसे एकबार दिखा दो ।’ पार्वती ने कहा, ‘पिताजी, यदि तुम ब्रह्मज्ञान चाहते हो तो संसार छोड़कर सत्संग करना पड़ेगा ।’ “पर हिमालय किसी भी तरह संसार नहीं छोड़ते थे । तब पार्वतीजी ने एक बार अपना ब्रह्मस्वरूप दिखाया । देखते ही गिरिराज एकदम मूर्छित हो गए ।
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*भक्तियोग*
“यह जो कुछ कहा, सब तर्क-विचार की बाते हैं । ‘ब्रह्म सत्य जगत् मिथ्या’ यही विचार है । सब स्वप्न की तरह है बड़ा कठिन मार्ग है । इस पथ में उनकी लीला स्वप्न जैसी मिथ्या बन जाती है । फिर ‘मैं’ उड़ जाता है । इस पथ में अवतार भी नहीं माना जाता । बड़ा कठिन है । ये सब विचार की बातें भक्तों को अधिक सुननी नहीं चाहिए ।
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“इसीलिए ईश्वर अवतीर्ण होकर भक्ति का उपदेश देते हैं – शरणागत होने के लिए कहते हैं । भक्ति से, उनकी कृपा से सभी कुछ हो जाता है – ज्ञान, विज्ञान सब कुछ होता है ।
“वे लीला कर रहे हैं – वे भक्त के अधीन हैं । ‘माँ भक्त की भक्तिरूपी रस्सी से स्वयं बँधी हुई हैं ।’
“ईश्वर कभी चुम्बक बनते हैं, भक्त सूई होता है । फिर कभी भक्त चुम्बक और वे सूई होते हैं । भक्त उन्हें खींच लेते हैं – वे भक्तवत्सल, भक्ताधीन हैं ।
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“एक मत यह है कि यशोदा तथा अन्य गोपीगण पूर्वजन्म में निराकारवादी थीं । उससे उनकी तृप्ति न हुई, इसीलिए उन्होंने वृन्दावनलीला में श्रीकृष्ण को लेकर आनन्द किया । श्रीकृष्ण ने एक दिन कहा, ‘तुम्हें नित्यधाम का दर्शन कराऊँगा, चलो, यमुना में स्नान करने चलें !’ ज्योंही उन्होंने डुबकी लगायी – एकदम गोलोक का दर्शन ! फिर उसके बाद अखण्ड ज्योति का दर्शन ! तब यशोदा बोलीं, ‘कृष्ण, ये सब और अधिक देखना नहीं चाहती, अब तेरे उसी मानवरूपी का दर्शन करूँगी, तुझे गोदी में लूँगी, खिलाऊँगी !!’
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“इसीलिए अवतार में उनका अधिक प्रकाश है । अवतार का शरीर रहते उनकी पूजा-सेवा करनी चाहिए । वह जो कोठरी के भीतर चोर-कोठरी है, भोर होते ही वह उसमें छिप जाएगा रे ।’
“अवतार को सभी लोग नहीं पहचान सकते । देहधारण करने पर रोग, शोक, क्षुधा, तृष्णा सभी कुछ होता है, ऐसा लगता है मानो वे हमारी ही तरह हैं ! राम सीता के शोध में रोये थे – ‘पंचभूत के फन्दे में पड़कर ब्रह्म भी रोते हैं ।’
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“पुराण में कहा है, हिरण्याक्ष-वध के बाद वराह-अवतार बच्चों को लेकर रहने लगे – उन्हें स्तनपान करा रहे थे । (सभी हँसे ।) स्वधाम में जाने का नाम तक नहीं । अन्त में शिव ने आकर त्रिशूल द्वारा उनके शरीर का विनाश किया, तब वे हँसते हुए स्वधाम में पधारे ।
(क्रमशः)

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