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*दादू विरह बियोग न सहि सकूँ, मोपै सह्या न जाइ ।*
*कोई कहो मेरे पीव को, दरस दिखावै आइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(२)
*गोपियों का प्रेम*
तीसरा प्रहर है । भवनाथ आए हैं । कमरे में राखाल, मास्टर, हरीश, आदि हैं । श्रीरामकृष्ण(भवनाथ के प्रति) - अवतार पर प्रेम होने से ही हो गया । अहा, गोपियों का कैसा प्रेम था !
यह कहकर आप गोपियों के भाव में गाना गा रहे हैं –
(१) (भावार्थ) – “श्याम तुम प्राणों के प्राण हो ........।”
(२) (भावार्थ) – “सखि, मैं घर बिलकुल नहीं जाऊँगी ......।”
(३) (भावार्थ) – “उस दिन, जिस समय तुम वन जा रहे था, मैं द्वार पर खड़ी थी । प्रिय, इच्छा होती है, गोपाल बनकर तुम्हारा भार अपने सिर पर उठा लूँ ! ........”
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श्रीरामकृष्ण – रास के बीच में जिस समय श्रीकृष्ण छिप गए, गोपिकाएँ एकदम पागल बन गयीं । एक वृक्ष देखकर कहती हैं, ‘तुम कोई तपस्वी होंगे ! श्रीकृष्ण को तुमने अवश्य ही देखा होगा ! नहीं तो समाधिमग्न होकर क्यों खड़े हो ?’ तृणों से ढकी हुई पृथ्वी को देखकर कहती हैं, ‘हे पृथ्वी, तुमने अवश्य ही उनके दर्शन किये हैं; नहीं तो तुम्हारे रोंगटे क्यों खड़े हुए हैं ? अवश्य ही तुमने उनके स्पर्शसुख का उपभोग किया होगा ! फिर माधवीलता को देखकर कहती हैं, ‘हे माधवी, मुझे माधव ला दे !’ गोपियों का कैसा प्रेमोन्माद है !
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“जब अक्रूर आए और श्रीकृष्ण तथा बलराम मथुरा जाने के लिए रथ पर बैठे, तो गोपीगण रथ के पहिये पकड़कर कहने लगीं, ‘जाने नहीं देंगे ।”
इतना कहकर श्रीरामकृष्ण फिर गाना गा रहे हैं –
(भावार्थ) –“रथचक्र को न पकड़ो, न पकड़ो, क्या रथ चक्र से चलता है । इस चक्र के चक्री हरि हैं, जिनके चक्र से जगत् चलता है ।”
श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं – “क्या रथ चक्र से चलता है’ – ये बातें मुझे बहुत ही हृदयस्पर्शी लगती हैं । ‘जिस चक्र से ब्रह्माण्ड घूमता है !’ रथी की आज्ञा से सारथि चलता है !”
(क्रमशः)

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