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*दादू साधु शब्द सौं मिल रहै, मन राखै बिलमाइ ।*
*साधु शब्द बिन क्यों रहै, तब ही बीखर जाइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वाँग साँच निर्णय का अंग १३३*
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दशा१ औदशा२ बहण३ बिय४, सदा जीव के साथ ।
जन रज्जब इन सौं परै, सो वित५ वेत्ता६ हाथ ॥९॥
सुअवस्था१ और बुरी-अवस्था२ ये दो३ बहिनें४ हैं और सदा जीव के साथ रहती हैं, इनसे परे जो ब्रह्म रूप धन५ है, सो तो ज्ञानी६ के वृत्ति रूप हाथ में है अर्थात ज्ञानी की ही वृत्ति ब्रह्मकार रहती है, अन्य सबकी सांसारिक सुख-दुखाकार रहती हैं ।
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दुख दोजख१ सुख स्वर्ग है, दोन्यों मांड२ मंझार ।
जन रज्जब इन सौं परे, सो जन उतरै पार ॥१०॥
दु:ख तो नरक१ है और सुख स्वर्ग है, दोनों ही ब्रह्माण्ड२ में हैं ।इन विषय जात सुख-दु:ख से जो परे है वही प्राणी संसार के पार जाता है ।
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प्रतिविम्ब पाणी न गहै, किरण अकरखै१ नीर ।
स्वांग साँच निर्णय भया, नहंग२ चढै कहिं सीर३ ॥११॥
सूर्य का प्रतिविम्ब जल को नहीं ग्रहण करता, किरण ही जल को खैंचती१ है । नख लाल तो दिखता है किंतु कहीं नख२ में भी रक्त३ चढता है क्या ? यह मिथ्या भेष और सत्य साधन का निर्णय हो गया है अर्थात भेष से भगवान नहीं मिलते, भजनादि साधन से ही मिलते हैं ।
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रज्जब करणी१ किरण सु ले चढै, जिव जल को आकाश ।
स्वांग शब्द प्रतिविम्ब परि, यहु कृत होइ न तास२ ॥१२॥
किरण जल को लेकर आकाश में चढ जाती है, उस२ प्रतिविम्ब से यह काम नहीं होता । वैसे ही साधन रूप कर्तव्य१ जीव को ब्रह्म स्वरूप में ले जाता है, उन२ भेषधारियों के शब्द से यह काम नहीं हो सकता अर्थात शब्द सुनने मात्र से ही कुछ नहीं होता शब्दों के अनुसार जीवन बनाने से ही तत्त्व साक्षात्कार होता है ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित स्वांग साँच निर्यण का अंग १३३ समाप्तः ॥सा. ४२९६॥
(क्रमशः)

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