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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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(#श्रीदादूवाणी ~ काल का अंग २५ - ५२/५५)
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*दादू विषै सुख मांहि खेलतां, काल पहुँच्या आइ ।*
*उपजै विनशै देखतां, यहु जग यों ही जाइ ॥५२॥*
उत्पन्न होते ही प्राणी विषय सुख में रमण करने लग जाता है और विषयों के भोगते-भोगते ही काल आ जाता है और सब को नष्ट कर देता है । इसी तरह प्राणी उत्पन्न हो होकर मर रहे हैं । यह काल की क्रीड़ा बड़ी ही विलक्षण है । लिखा है कि-
दिन और रात सायं काल और प्रातः काल शिशिर और वसन्त पुनः पुनः आते हैं इसी प्रकार काल की लीला होती रहती है और आयु भी बीत जाती है । किन्तु आशा वायु इस जीव को छोड़ती नहीं ।
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*राम नाम बिन जीव जे, केते मुये अकाल ।*
*मीच बिना जे मरत हैं, तातैं दादू साल ॥५३॥*
हरि भजन के बिना बहुत से जीव अकाल मृतु ग्रस्त हो जाते हैं । यदि वे हरि का भजन करे तो मुक्त हो जाये । इसका भाव यह है कि यह जीव शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वरूप होता हुआ भी नाना कर्म पाशों से स्वयं ही अपने अज्ञान से बद्ध हो जाता है और अपने अहंकार से मर रहा हैं । अतः ज्ञान प्राप्त करके हरि को भजना चाहिये । यह बिना मृत्यु के मरण का भाव है । विज्ञ पुरुषों को इसी बात का कष्ट है की जानबूझ कर मिथ्या अहंकार करता है । विवेकचूडामणि में कहा है कि- परमार्थ लाभ प्राप्त करके पदार्थों के राग को त्याग दो और अहंकार की वृत्ति को समाप्त करके अपने आत्मसुख की अनुभूति द्वारा पूर्णरूपेण निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर मौन हो जावो ।
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*॥ कठोरता ॥*
*सर्प सिंह हस्ती घणा, राक्षस भूत प्रेत ।*
*तिस वन में दादू पड़या, चेतै नहीं अचेत ॥५४॥*
इस संसाररूपी वन में संशय सर्प है, क्रोध सिंह, काम हाथी, मन राक्षस, पाचों ज्ञानेन्द्रियों भूत, सत्त्व रज तम ये तीन गुण ही प्रेत है । इन भूत प्रेतादिकों से यह जीव सदा ही पीडित रहता है । फिर भी भजन नहीं करता । अतः हे प्राणियों ! इन से मुक्त होने के लिये गोविन्द का भजन करो । लिखा है कि- मुझे भोजन मिले, मुझे सुन्दर स्त्री मिले, भाई बन्धु मिले इस प्रकार मैं-मैं करता हुआ काल के मुख में चला जाता है । जैसे जंगल में मैं-मैं करने वाली बकरी को भेडिया खा जाता ही ।
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*पूत पिता थैं बीछुट्या, भूलि पड़या किस ठौर ।*
*मरै नहिं उर फाट कर, दादू बड़ा कठोर ॥५५॥*
जैसे कोई लड़का अपने पिता से वियुक्त हो जाता है तो उसकी कहीं गति नहीं होती, ऐसे ही यह जीव पिता परमेश्वर से अलग होकर मरता जन्मता रहता है और दूसरी गति नहीं । यह जीव कठोर हृदय का है । न उसके हृदय में पिता से वियोग होने का दुःख है । न कभी विरहताप से दुःखी होता है । अहो इस जीव की कृतघ्नता को धिक्कार है । जो कष्ट दूर करने वाले प्रभु को भी नहीं भजता ।
लिखा है कि सुभाषितरत्नभाण्डागार में- ये भोग नदी के उत्ताल तरंगों की तरह चपल है । प्राण भी क्षणभंगुर है । यौवन सुख भी कुछ ही दिनों का है । क्रिया करने की स्फूर्ति भी अस्थिर है । अतः हे विद्वानों ! संसार की असारता को जान कर परोपकार की भावना से संसार से पार होने का उपाय सोचो ।
(क्रमशः)

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