शुक्रवार, 15 जनवरी 2021

*१२. चितावणी कौ अंग ~ ९/१२*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१२. चितावणी कौ अंग ~ ९/१२*
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कहिये७ जगजीवन देह तजि, देह जगावै नांम ।
ते देही विराजैं, जहां निरंजन रांम७ ॥९॥
(७-७. साधना के द्वारा योग से देह को संयत कर इसे भगवन्नाम कीर्तन में लगाना चाहिये । तब इस देह में रहने वाली आत्मा का निरंजन निराकार परमात्मा से मेल हो जाता है ॥९॥)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि देह को संयत कर भगवन्नाम जपें इस देह में ही प्रभु विराजमान हैं ।
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सुख था सो कोनी१ रह्या दुख दोजग२ तहां जाइ । 
जगजीवन आंधी दुनी, रांम तजै विष खाइ ॥१०॥
(१. कोनी=नहीं) {२. दोजग=दोजख(नरक)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सुख का समय जब नहीं रहा तो दुख भी नर्क में जायेगा यह संसार इस प्रकार सुख को छोडकर दुख में जाता है कि भजनांनंद को छोड़कर संसार की ओर भागता है । राम स्मरण छोड़ विष रुपी विषयों को अपनाते हैं ।
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सुख था सो कोनी रह्या, यहु दुख अलप३ अयांन ।
सुख दुख परिहरि रांम कहै, जगजीवन सौ जांन ॥११॥
{३. अलप=अल्प(=थोड़ा)} 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जब सुख स्थायी नहीं है तो दुख का इतना विचार क्यों करते हो । सुख दुख का विचार छोड़कर भगवान का भजन करें वह ही सत्य है ।
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आये थे सुभ कांम कूं, आखरि४ भया अकांम५ ।
पाप पसारे मन दिया, जगजीवन तजि रांम ॥१२॥
{४. आखरि=आखिर(=अन्त में)} {५. अकांम=(=व्यर्थ)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हमारा जन्म संसार में शुभ कार्य करने हेतु हुआ है । और हमसे अंत में व्यर्थ के कार्य हुए । हमने पाप के प्रसार में अपना मन लगाया राम भजन को छोड़ कर ।
(क्रमशः)

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