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*दादू जिन को सांई पाधरा, तिन बंका नांही कोइ ।*
*सब जग रूठा क्या करै, राखणहारा सोइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ शूरातन का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*गौंड वाणौं देश तहां देविका दिपत एक,*
*छठे मास माँगे बलि माणस के शीश की ।*
*ऋषि हुते खेत खलै क्षिति-भुज१ ताके चर,*
*पकरि ले आये उन पेश कियो ईश की ॥*
*भूप रीझयो देख रूप तुष्ट हो कराई पुष्ट,*
*अष्टमी को अर्पे मुनि जालपा ने रीस की ।*
*राघो देवी देख ऋषि नृपति को कीन्हों नाश,*
*ऐसे मुनि मारौं तो हूँ चोर जगदीश की ॥६०॥*
बच्चा कुछ बड़ा हो जाने पर मृगों के साथ भाग गया फिर नहीं आया । अंत समय मुनि का मन मृग में रहने से वे शरीर छोड़कर मृग योनि में चले गये और कलिंजर के वन में रहने लगे । उस समय मृग शरीर में भी इनको पूर्व जन्म की स्मृति थी । मृग शरीर छूटने पर ब्राह्मण के घर जन्मे । यहां भी भरत नाम पड़ा था और पूर्व दोनों जन्मों की स्मृति भी थी । उदासीन रहते थे ।
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गौंडवाणा देश में एक जालपा नाम की देवी अति प्रसिद्ध थी, वह छठे महीने नवरात्र में अष्टमी के दिन मनुष्य के शिर की बलि माँगती थी ।
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एक भीलों के राजा ने देवी को बलि देने योग्य मनुष्य को लाने के लिये अपने सेवक भेजे थे । वे जहां खेत के खले में जड़भरत थे वहां ही जा पहुँचे और जड़ भरतजी को पकड़ लाये तथा अपने स्वामी राजा के सामने खड़े कर दिये ।
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भीलों का राजा जड़ भरत के रूप को देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ तथा संतुष्ट होकर जड़ भरत की काया को खिला पिलाकर और भी पुष्ट कराई । फिर अष्टमी के दिन मुनि को जालपा देवी के समर्पण किया तब जालपा ने क्रोध किया ...
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और प्रकट होकर बलि के लिये लाये हुये मुनि को देखा तथा मुनि को मारने वाले राजा का नाश कर डाला और कहने लगी- ऐसे मुनि महाराज को यदि मैं मारूं तो निश्चय ही जगदीश्वर की चोर हूँगी ।
(क्रमशः)

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