शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

= *स्वांग का अंग १३२(१२९/१३२)* =

🌷🙏*🇮🇳 #daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*भक्ति न जाणै राम की, इन्द्री के आधीन ।*
*दादू बँध्या स्वाद सौं, ताथैं नाम न लीन ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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भाँड१ भूत२ बहुते करैं, भूखे भेष अपार ।
रज्जब छलणे का मता३, ता में फेर न सार ॥१२९॥
भूखे होने से बहुत से निर्लज्ज१ प्राणी२ अनन्त प्रकार के भेष बनाते हैं । दूसरों को छलने के विचार३ से ही भेष बनाये जाते हैं । उस वक्त वचन को बदलने की आवश्यकता नहीं है, यह सार वचन है ।
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भेषों भक्ति न ऊपजै, बाने१ वश नहि पंच ।
जन रज्जब इस स्वांग२ में, खैबे ही की लंच ॥१३०॥
भेष से भक्ति उत्पन्न नहीं होती, भेष१ से पंच ज्ञानेन्द्रिय अधीन नहीं होती, उलटी इस भेष२ में आने से खाने की आदत पड़ जाती है अर्थात जीमने की लालसा बढ़ जाती है ।
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स्वांगों१ स्वारथ खाण का, भेषों भुगति२ अनंत ।
रज्जब यूं३ बाने बँधे, कदे न छोड़ै जंत४ ॥१३१॥
भेष धारियों१ में खाने का ही स्वार्थ होता है तथा भेषधारियों में अनन्त भोगाशा२ रहती है, इसलिये३ भेष में बंधे रहते हैं, स्वार्थी जीव४ भेष को कभी नहीं छोड़ते ।
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पड़े पठंगै१ भेष के, पामर पाले पेट ।
जन रज्जब इस वित्त२ पै, नहीं राम सौं भेंट ॥१३२॥
भेष की शरण१ में पड़कर पामर लोग ही पेट पालते हैं, इस भेष रूप धन२ पर निर्भर रहने से राम से नहीं मिल सकता ।
(क्रमशः)

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