शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

*भक्तों के साथ~श्रीकृष्णभक्ति*

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*दादू दर्शन की रली, हम को बहुत अपार ।* 
*क्या जाणूं कबही मिले, मेरा प्राण आधार ॥*
*दादू कारण कंत के, खरा दुखी बेहाल ।*
*मीरां मेरा महर कर, दे दर्शन दरहाल ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)* 
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद) 
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ 
*परिच्छेद ६५* 
*भक्तों के साथ (१) श्रीकृष्णभक्ति* 
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श्रीरामकृष्ण सदा ही समाधिमग्न रहते हैं; केवल राखाल आदि भक्तों की शिक्षा के लिए उन्हें लेकर व्यस्त रहते हैं – जिससे उन्हें चैतन्य प्राप्त हो । 
वे अपने कमरे के पश्चिमवाले बरामदे में बैठे हैं । प्रातःकाल का समय, मंगलवार, १८ दिसम्बर १८८३ ई. । स्वर्गीय देवेन्द्रनाथ ठाकुर की भक्ति और वैराग्य की बात पर वे उनकी प्रशंसा कर रहे हैं । राखाल आदि बालक भक्तों से वे कह रहे हैं, - “वे सज्जन व्यक्ति हैं । परन्तु जो गृहस्थाश्रम में प्रवेश न कर बचपन से ही शुकदेव आदि की तरह दिनरात ईश्वर का चिन्तन करते हैं, कौमार अवस्था में वैराग्यवान् हैं, वे धन्य हैं । 
“गृहस्थ की कोई न कोई कामना-वासना रहती है, यद्यपि उसमें कभी कभी भक्ति – अच्छी भक्ति – दिखायी देती है । मथुरबाबू न जाने किस एक मुकदमे में फँस गए थे; मन्दिर में माँ काली के पास आकर मुझसे कहता हैं, ‘बाबा, माँ को यह अर्घ्य दीजिए न !’ मैंने उदार मन से दिया । परन्तु कैसा विश्वास है कि मेरे देने से ही ठीक होगा । 
“रति की माँ की इधर कितनी भक्ति है ! अक्सर आकर कितनी सेवा-टहल करती है ! रति की माँ वैष्णव है । कुछ दिनों के बाद ज्योंही देखा कि मैं माँ काली का प्रसाद खाता हूँ – त्योंही उसने आना बन्द कर दिया । कैसा एकांगी दृष्टिकोण है । लोगों को पहले-पहल देखने से पहचाना नहीं जाता ।” 
श्रीरामकृष्ण कमरे के भीतर पूर्व की ओर के दरवाजे के पास बैठे हैं । जाड़े का समय । बदन पर एक ऊनी चद्दर है । एकाएक सूर्य देखते ही समाधिमग्न हो गये । आँखें स्थिर ! बाहर का कुछ भी ज्ञान नहीं । 
क्या यही गायत्रीमन्त्र की सार्थकता है – “तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि’ ? 
बहुत देर बाद समाधि भंग हुई । राखाल, हाजरा, मास्टर आदि पास बैठे हैं । 
श्रीरामकृष्ण(हाजरा के प्रति) – समाधि या भाव-अवस्था की प्रेरणा प्रेम से ही होती है । श्यामबाजार में नटवर गोस्वामी के मकान पर कीर्तन हो रहा था – श्रीकृष्ण और गोपियों का दर्शन कर मैं समाधिमग्न हो गया ! ऐसा लगा कि मेरा लिंग शरीर(सूक्ष्म शरीर) श्रीकृष्ण के पैरों के पीछे पीछे जा रहा है । 
“जोड़ासाँकू हरिसभा में उसी प्रकार कीर्तन के समय समाधिस्थ होकर बाह्यशून्य हो गया था । उस देहत्याग की सम्भावना थी !” 
श्रीरामकृष्ण स्नान करने गए । स्नान के बाद उसी गोपीप्रेम की ही बात कर रहे हैं । 
श्रीरामकृष्ण(मणि आदि के प्रति) – गोपियों के केवल उस आकर्षण को लेना चाहिए । इस प्रकार के गाने गाया करो – 
(भावार्थ) – “सखि, वह वन कितनी दूर है, जहाँ मेरे श्यामसुन्दर हैं । मैं तो और चल नहीं सकती ।” 
(भावार्थ) – “सखि, जिस घर में कृष्णनाम लेना कठिन है उस घर में तो मैं किसी भी तरह नहीं जाऊँगी !” 
(क्रमशः)

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