मंगलवार, 12 जनवरी 2021

*भीष्मदेव की कथा । योग कब सिद्ध होता है*

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*एक देश हम देखिया, नहिं नेड़े नहिं दूर ।*
*हम दादू उस देश के, रहे निरंतर पूर ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ माया का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(२)
*भीष्मदेव की कथा । योग कब सिद्ध होता है*
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फिर रात को श्रीरामकृष्ण मणि के साथ बातें कर रहे हैं । राखाल, लाटू, हरीश आदि हैं ।
श्रीरामकृष्ण(मणि के प्रति) – अच्छा कोई कोई कृष्णलीला की आध्यात्मिक व्याख्या करते हैं । तुम्हारी क्या राय है ?
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मणि – विभिन्न मतों के रहने से भी क्या हानि है ? भीष्मदेव की कहानी आपने कही है । शरशय्या पर देहत्याग के समय उन्होंने कहा था, ‘मैं रो क्यों रहा हूँ ? वेदना के लिए नहीं । पर जब सोचता हूँ कि साक्षात् नारायण अर्जुन के सारथि बने थे, परन्तु फिर भी पाण्डवों को इतनी विपत्तियाँ झेलनी पड़ीं, तब लगता है कि उनकी लीला कुछ भी समझ नहीं सका, इसीलिए रो रहा हूँ ।’
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“फिर हनुमान की कथा आपने सुनायी है । हनुमान कहा करते थे, ‘मैं वार, तिथि, नक्षत्र आदि कुछ भी नहीं जानता, मैं केवल एक राम का चिन्तन करता हूँ ।’
“आपने तो कहा है, दो चीजों के सिवाय और कुछ भी नहीं है, ब्रह्म और शक्ति । और आपने यह भी कहा है, ज्ञान(ब्रह्मज्ञान) होने पर वे दोनों एक ही जान पड़ते हैं । ‘एकमेवाद्वितीयम् ।’
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श्रीरामकृष्ण – हाँ, ठीक ! वस्तु प्राप्त करना है सौ काँटेदार जंगल में से जाकर लो या अच्छे रास्ते से जाकर लो ।
“अनेकानेक मत अवश्य हैं । नागा(तोतापुरी) कहा करता था, मत मतान्तर के कारण साधुसेवा न हुई । एक स्थान पर भण्डारा हो रहा था । अनेक साधु-सम्प्रदाय थे ! सभी कहते हैं हमारी सेवा पहले हो, उसके बाद दूसरे सम्प्रदायों की । कुछ भी निश्चित न हो सका । अन्त में सभी चले गए और वेश्याओं को खिलाया गया !”
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मणि – तोतापुरी महान् व्यक्ति थे ।
श्रीरामकृष्ण – हाजरा कहते हैं, मामूली । नहीं भाई, वादविवाद से कोई काम नहीं, सभी कहते हैं, ‘मेरी घड़ी ठीक चल रही है ।’
“देखो, नारायण शास्त्री को प्रबल वैराग्य हुआ था । उतना बड़ा पण्डित – स्त्री को छोड़कर लापता हो गया । मन से कामिनी-कांचन का सम्पूर्ण त्याग करने से तब योग सिद्ध होता है । किसी किसी में योगी के लक्षण दिखते हैं ।
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“तुम्हें षट्चक्र के बारे में कुछ बता दूँ । योगी षट्चक्र को भेद कर उनकी कृपा से उनका दर्शन करते हैं । षट्चक्र सुना है न ?”
मणि – वेदान्त मत में सप्तभूमि ।
श्रीरामकृष्ण – वेदान्त-मत नहीं, वेद-मत ! षट्चक्र क्या है जानते हो ? सूक्ष्म देह के भीतर ये सब पद्म हैं – योगीगण उन्हें देख सकते हैं । जैसे मोम के बने वृक्ष के फल, पत्ते ।
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मणि – जी हाँ, योगीगण देख सकते हैं । एक पुस्तक में लिखा है – एक प्रकार की काँच होती है, जिसके भीतर से देखने पर बहुत छोटी चीजें भी बड़ी दिखती हैं । इसी प्रकार योग द्वारा वे सब सूक्ष्म पद्म देखे जाते हैं ।
श्रीरामकृष्ण ने पंचवटी के कमरे में रहने के लिए कहा है । मणि उसी कमरे में रात बिताते हैं । प्रातःकाल उस कमरे में अकेले गा रहे हैं-
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(भावार्थ) – “हे गौर, मैं साधन-भजनहीन हूँ । मैं हीन-दीन हूँ, मुझे छूकर पवित्र कर दो ! हे गौर, तुम्हारे श्रीचरणों का लाभ होगा, इसी आशा में मेरे दिन बीत गये । हे गौर, तुम्हारे श्रीचरण तो अभी तक नहीं पा सका !” 
एकाएक खिड़की की ओर ताककर देखते हैं, श्रीरामकृष्ण खड़े हैं । “मैं हीन-दीन हूँ, मुझे छूकर पवित्र कर दो” यह वाक्य सुनकर श्रीरामकृष्ण की आँखों में आँसू आ गए । 
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फिर दुसरा गाना हो रहा है –
(भावार्थ) – “मैं शंख का कुण्डल पहनकर गेरुआ वस्त्र पहनूँगी । मैं योगिनी के वेष में उसी देश में जाऊँगी जहाँ मेरे निर्दय हरि हैं ।”
श्रीरामकृष्ण राखाल के साथ घूम रहे हैं ।
(क्रमशः)

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