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*दादू माला तिलक सौं कुछ नहीं, काहू सेती काम ।*
*अन्तर मेरे एक है, अहनिशि उसका नाम ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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जन्त्र१ गवौं२ रागै बजे, सोई राम सरबेनि३ ।
तो रज्जब सारि४ श्रृंगार का, कंध भार अधकेनि५ ॥१४५॥
बाजे१ और गायकों२ द्वारा राग बजता है, वही राग श्रेष्ठ३ है । तब पीतल के पड़दे४ आदि श्रृंगार का भार कन्धे पर अधिक५ ही लादा जाता है । अर्थात बिना पड़दे के बाजे से भी राग बजाये जाते है वैसे ही सच्चे संत भेष बिना ही भजन करते है तब भेष का भार क्यों लादा जाय ?
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सारि न रची रबाब के, गवै तंदूरै धारि ।
रज्जब राग सु एक से, बधि१ बंदौं बेगारि ॥१४६॥
रबाब नामक बाजे के पीतल के पड़दे नहीं होते और तंदुरे के होते हैं । गायक रबाब और तंदूरा दोनों को ही धारण करके एक समान राग गाते हैं । तब पड़दे के बाँधने का परिश्रम रूप बेगार व्यर्थ१ ही की जाती है । वैसे ही भेष तथा बिना भेष भी भजन द्वारा प्रभु प्राप्त हो जाता है, तब भेष बनाना व्यर्थ ही है ।
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गऊ दंत दर्शन१ दशा२, दूजी दिशि सो नाँहिं ।
यूं स्वाँगी सादे सदा, उभय माँड मुख माँहिं ॥१४७॥
गाय के मुख में आगे के दाँत देखने१ के ही हैं, ऊपर के दाँत न होने से चबाने के नहीं हैं । वैसे ही भेषधारी ब्रह्माण्ड में दर्शन की अवस्था२ में ही हैं प्रभु प्राप्ति के उपाय साधन करने की अवस्था में नहीं हैं ।
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बिन सुन्नत ह्वै तुरकनी, ब्राह्मणि तागे१ नाश ।
ऐसे माला तिलक बिन, रज्जब भक्त सु दास ॥१४८॥
जैसे बिना सुन्नत नारी मुसलमानी हो जाती है और बिना जनेऊ१ नारी ब्राह्मणी हो जाती है । वैसे ही जो भजनानन्दी होता है वह दास बिना माला तिलक के भी भक्त हो जाता है, भक्त के लिये माला तिलकादि आवश्यक नहीं, भजन ही आवश्यक है ।
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित प्राणी स्वाँग का अंग १३२ समाप्तः ॥सा. ४२८४॥
(क्रमशः)
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