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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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(#श्रीदादूवाणी ~ काल का अंग २५ - १७/२०)
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*दादू काया कारवीं, मोहि भरोसा नांहि ।*
*आसन कुंजर शिर छत्र, विनश जाहिं क्षण मांहि ॥१७॥*
यह शरीर धर्मशाला के तुल्य है । इसमें चिरस्थायी कोई भी नहीं रह सकता । बडे राजा महाराजा जो छत्र चंवरधारी हाथी घोड़ों पर बैठ कर चलते थे वे भी क्षणभर में अपने शरीरों को त्याग कर चले गये ।
महाभारत में- जब बुद्धिमान् मूढ धनवान् निर्धन सभी शमशान भूमि में जाकर सोते हैं । अतः इसमें सदा के लिये कोई भी नहीं रह सकता । अधिक क्या ? जब अपना शरीर ही नहीं रह सकता तो अन्य की तो बात ही क्या कही जाय । अतः यह शरीर विश्वास के योग्य नहीं है ।
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*दादू काया कारवीं, पड़त न लागै बार ।*
*बोलणहारा महल में, सो भी चालणहार ॥१८॥*
इस शरीर के नाश होने में क्षण भर भी विलम्ब नहीं होता क्योंकि यह अनित्य तथा क्षणभंगुर है । जो इस शरीर में जीवात्मा बोलता चलता बैठता श्वास लेता है वह भी इसको त्याग कर अवश्य जायेगा । क्योंकि जन्म लेने वाले की मृत्यु ध्रुव है, ऐसा सिद्धांत है । अतः इस शरीर से ममता त्याग कर हरि को भजो । क्योंकि जीव को इस स्थूल शरीर के साथ सम्बन्ध होने पर ही सुख दुःख, शुभ अशुभ होते हैं । जिसने अपने शरीर के सम्बन्ध को विध्वस्त कर दिया उस मुनि को सुख दुःख कैसे व्याप्त हो सकते हैं ? क्योंकि वह तो सत् स्वरूप हो जाता है ।
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*दादू काया कारवीं, कदे न चालै संग ।*
*कोटि वर्ष जे जीवना, तऊ होइला भंग ॥१९॥*
यह शरीर रास्ते चलने वाले पथिकों के रहने का निवास स्थान है । यहां पर सदा कोई नहीं रहता है और यह शरीर जीव के साथ भी नहीं जाता । यदि करोड़ वर्ष भी जीवित रह जाय तो भी एक दिन अवश्य नष्ट होगा । कठोपनिषद में- नचिकेता कह रहा है कि हे यम ! शरीर कल तक भी रहेगा या नहीं और भोगों से सब इन्द्रियों का तेज नष्ट हो जाता है । कितना ही जियो, पर वह भी थोड़ा ही है । अतः दीर्घकाल की आशा को छोड़कर प्रभु का भजन ही करना चाहिये ।
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*कहतां, सुनतां, देखतां, लेतां, देतां प्राण ।*
*दादू सो कतहुँ गया, माटी धरी मसाण ॥२०॥*
जो कहता था, सुनता था, सूंघता, ग्रहण करता, लेता, देता था, वह जीव भी न जाने कहा चला गया । किन्तु शमशान में पुरुषों द्वारा लाया गया शरीर ही दिखता है । अतः संपूर्ण भोगों को भोगने वाले जीव को भी शरीर के साथ सम्बंध होने से ही प्रतीति होती है । अन्यथा वह तो अव्यक्तलिंग है ।
(क्रमशः)
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