शनिवार, 16 जनवरी 2021

*धन्य ऋषि तेरो मौन रीझे न रिसाने हो*



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*सहज रूप मन का भया, जब द्वै द्वै मिटी तरंग ।*
*ताता शीला सम भया, तब दादू एकै अंग ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ मध्य का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,* 
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान* 
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ* 
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami* 
*देवी देख साहस सहस बेर कीन्ही स्तुति,* 
*तुम्हें ऋषि यहाँ इन मूरखों ने आने हो ।* 
*तुम भर्त१ चक्रवर्ती हुते चहूँ२ चक३ मध्य,* 
*पुनि मृग रूप भये तहां हम जाने हो ॥* 
*सब द्विज देह पाय जड-भर्त योगेश्वर,* 
*जीवन मुकत मुनि मोक्ष पद माने हो ।* 
*राघो ऋषि एक रस मात भई ताके वश,*
*धन्य ऋषि तेरो मौन रीझे न रिसाने हो ॥६१॥* 
देवी ने मुनि स्वस्वरूप स्थितिरूप दृढ़ता देखकर हजारों बार स्तुति करते हुये कहा- ऋषिराज ! इन मूर्खों ने आपको यहाँ लाकर उपस्थित किया है, मेरा इसमें कोई दोष नहीं है । आप मुझ पर प्रसन्न होइये । आप पहले चारों२ ओर की पृथ्वी३ के चक्रवर्ती राजा भरत१ थे, मृग में आसक्ति होने से आप मृग बन गये थे । वहां भी मैंने आपको पहचान लिया था । 
अब आपने ब्राह्मण शरीर प्राप्त करके जड़भरत योगेश्वर नाम पाया है । आप जीवन्मुक्त मुनि हैं और ज्ञानीजनों में मोक्ष पद रूप ही माने जाते हैं । राघवदास जी कहते हैं- देवी के उक्त प्रकार स्तुति करने पर भी ऋषि एक रस ही रहे अर्थात् भला बुरा कुछ नहीं बोले । इससे जालपा माता जी उनके अधीन हो गई और बोली- “ऋषिराज ! न तो मारने वालों पर आपने क्रोध किया है और न मुझ स्तुति करने वाली पर प्रसन्न ही हुए हैं । अतः आपका यह ज्ञानरूप मौन परम धन्य हैं ।” 
(क्रमशः)

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