शनिवार, 16 जनवरी 2021

*१२. चितावणी कौ अंग ~ १३/१६*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१२. चितावणी कौ अंग ~ १३/१६*
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अरथ भेद समझै नहीं, अगम अगोचर बात ।
जगजीवन इस जीव कूं, ता थैं लागे लात६ ॥१३॥
{६.लात=पादप्रहार(लोक में उपेक्षा या अपमान)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव प्रभु का अर्थ भेद कुछ भी नहीं जानता अतः यह जीव पश्चाताप की प्रताड़ना सहता है ।
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अतिबिछोहा७ होइगा, जासी८ सकल जिहंद९ ।
जगजीवन दुनियां करै, दिवस होइ सुख द्वंद१० ॥१४॥
(७. अतिबिछोहा=अतिशय वियोग) (८. जासी=जायगी)
(९. जिहंद=समझदारी) (१०. दुख द्वंद=सांसारिक माया जाल)
संतजगजीवन जी कहते हैं इस संसार में कुछ भी स्थायी नहीं है सबका विछोह होगा सब जीव जो आये हैं वे जायेंगे । संत कहते हैं कि दुनियां व्यर्थ ही संसारिक माया जाल में फंस कर अपने दुख के साधन बढाती है ।
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माया रहै न मन रहै, जोबन११ रहै न ज्यंद१२ ।
तौ जगजीवन जिन करै, ए झूंठा दुख द्वंद ॥१५॥
{११. जोबन=यौवन(जवानी)} (१२. ज्यंद=जीवन)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि न तो माया रहेगी न ही यौवन रहेगा न ही जीवन स्थायी है । तो संत कहते हैं कि व्यर्थ ही ये झूठा दुख द्वंद्व न करें ।
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कहा चितावै चित्त कौं, चित मंहि बिरह न नांम ।
कहि जगजीवन चितवन१३, चिंता चारों जांम१४ ॥१६॥
{१३. चितवन=लौकिक(बाह्यदृष्टि)} {१४. जांम=ग्राम(प्रहर)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस चित को कहाँ लगा रहे हो इसमें न तो प्रभु विरह है न प्रभु का नाम । उस परमात्मा को बाह्यदृष्टि के देखें नहीं तो चारों प्रहर चिंता ही बनी रहेगी ।
(क्रमशः)

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